Saturday, September 17, 2011

तुम को तो एक ज़िन्दगी चाहिए थी


तुम को तो एक ज़िन्दगी चाहिए थी , कहाँ से लाता ज़िन्दगी? मैंने समजाया था तुम को कि जब से तुम्हारे बदन की खुशबू ओढ़े बैठा हूँ यहाँ, तब से इस कब्र से खुदी मिट्टी को सूंघ रहा हूँ! तुम्ही ने तो कहा था मेरे साथ चलो आसमान छूने! और अब जब तक मिट्टी जैसा ना हो जाऊं आसमान छू लूं तो आखिर कैसे! तुम्हारी बात ही और है , तुम्हारे साथ सात समंदर हैं और मंथन करो तो गहरायी ही गहरायी है! अमृत है, विष है, मोती है , मनका है क्या नहीं है? उफ़ लहरूं का संगीत है , बादल की घर्जना है पर मैं ........? मैं मीलूँ लम्भी ख़ामोशी ओढ़े पड़ा हूँ और मेरे साथ है तो समुद्र को समेटे एक साहिल बस!
यह जो अनगिनत पत्ते हवा मैं तैरते इठलाते तुम्हारे पग चिन्हूं के स्पर्श का स्वप्न देख रहे हैं, कहीं ना कहीं मेरे बिख्शू पात्र से असंतुलित हो बिखर गए हैं! मैं शाख से गिरे पत्ते की विरह गाथा उस के सूखे आज पर लिख नहीं पाया और इसीलिए तुम्हारे पाऊँ का स्पर्श ना पा सका दब कर कही बिखर गया!यही है मेरा सत्य कोरे कागज़ पर अंकित सत्य! वह सत्य जिसे सुनने का सामर्थ्य चाहिए वर्ना दो बूँद आंसू बह जाएँ - मैं सारी की सारी सचाई का गला घोंट दूंगा! ऐसा मैंने कितनी बार किया है अपने ही सत्य को जुठ्लाया है क्यूंकि दहकते शरीर की हर आंच मेरे अस्तित्व को कर्राहने पर मजबूर करती थी! और उन कमरूं की चार दीवारूं के बीच तुम पांचवी दीवार बने मुझे देखते रहते थे - बेजान!
वह हज़ारूं सचाइयूं से गुजरने के बाद एक खुले आकाश तले मिला मुझे!मेरी रग - रग मैं दौड़ता ज़हर पी लिया उसने! वह अजीब था खेल मैं हार गया और वह जीत के सारे सामान मेरी झोली मैं डाल गया! जाने क्या था उन आंखूं मैं मेरे तपते जिस्म को पनाह मिली, और मैं कब चल दिया उस के साथ मुझे मालूम नहीं! दोस्त तुम से क्या छिपाना , कुछ भी तो छुपाया नहीं कभी तुम से, और कुछ भी ऐसा नहीं जो सुना नहीं तुम ने, तो आज क्यूं हार गए तुम? सत्य सुनने किसी चोखट पर नहीं जाना पड़ता! सत्य सुनने के लिए मन ही काफी है!
देखो कितनी मिट्टी मेरे आस पास बिखरी पडी है आज भी! और मैं सूंघ रहा हूँ इस को मुट्ठी बाँध बाँध के! तुम ही हो जो आकाश तक पहुंचा सकता है मुझे! इसीलिये इस कब्र को अपने साथ ले जा रहा हूँ जाने कब तुम सूरज के सातवें घोड़े पर बिठा कर रुखसत कर दो?