Tuesday, February 28, 2012

क़त्ल एक सोंच का


क़त्ल एक सोंच का

रात, बिस्तर बिछाए बैठी थी

चाँद, कटोरा लिए था

भूख , पास के फुटपाथ पर

खरीदार देख रही थी!

वहां कोने मैं

मद्धम रौशनी थी

कमर और हाथ एक साथ

संगीतमय हिल रहे थे

पकवानों का कचरा

आस पास बिखरा था

इंसान और कुत्ते

एक साथ ज़मीन चाट रहे थे!

लड़खड़ाते कदम बाहर आये

हथेली पाऊँ के पास देखी

मुर्दा सोंच गुर्राई

हट बे नाली के कीड़े

एक रात भी

चैन से जीने नहीं देते!

अचानक आँखें चमकीं

हाथ उठ गया और

बदहवास गुर्र्बत चीखी

थू ,एक रात भी जीने का

हक नहीं तुझे !

~प्राणेश नागरी -१९.०२.२०१२

Thursday, February 23, 2012

विस्थापन


विस्थापन

जब मैं इस घर से चला था

तुम्हारी कुछ उखड़ी साँसें

अपने कंधे पर

लाद के ले चला था मैं

अपने साथ

और वह सांसें

धूप मैं तप कर

उबलते टेंटों की घर्मी मैं

दफ़न हो गयी थीं

फिर आज इस कमरे की

चार दीवारी मैं

मकड़ी के लटकते जाल के बीच

तुम्हारी धड़कन क्यूं

सुनाई दे रही है मुझे

क्यूं इस मिटटी के फर्श पर

तुम्हारे क़दमों का एहसास

हो रहा है मुझे

तुम्हारी आवाज़

चेहरों के वीरान जंगल मैं

खो गयी थी कहीं

फिर कौन है जो

कोने मैं बैठा

गले को खंगाल रहा है

उफ़ यह यादों के

अनगिनत शूल क्यूं

छिल रहे हैं मेरे अस्तित्व को

और यह किस के हाथ की

शीतल छुवन

सहला रही है मेरी पीठ को

कौन है इस वीरान कमरे में

जहां से में तुम्हारी

उखड़ी उखड़ी सांसें

लाध के चला था

अपने कंधे पर

एक दिन !

~प्राणेश नागरी -२३.०२.२०१२

Wednesday, February 22, 2012

कैसी हो तुम


कैसी हो तुम ........

सुख कभी देती नहीं

और दुःख ,कभी बांटती नहीं

बस एक संदेसा

भेज देती हो कभी कभी

इस सफ्ताह

वह आयेंगे मेरे पास रहने !

और फिर उस सफ्ताह

तुम मुझ से बात नहीं करती

उस पूरे सफ्ताह

मैं सोंचता रहता हूँ

कि तुम उस की आगोश मैं

वैसे ही रहती होगी

जैसे मेरे साथ रहती थी

और वह तुम्हारे अंग अंग

को वैसे ही निहारता होगा

जैसे मैं निहारता था

उस की उंगलियाँ

तुम्हारे बालों मैं

वैसे ही चलती होंगी

जैसे मेरी चलती थीं!

समझती हो ना तुम

मूर्तिमान बदलते हैं

मंच और मंचन नहीं बदलता

कथा और कथाकार नहीं बदलते!

ठीक वैसे ही जैसे

मेरा सत्य तुम्हारा सुख होता है

और तुम्हारा सत्य मेरा दुःख

पर सुख और दुःख की

परिभाषा नहीं बदलती

हाँ यह कारोबारी जगत है

मेरी ग़ुरबत और तुम्हारी दौलत

कभी भी इदर से उधर हो सकती है !

~प्राणेश नागरी -२२.०२.२०१२

Friday, February 17, 2012

समय


समय

वह तुम्हारे

इलेक्ट्रोनिक प्रेम पत्र

मेरी मेल बॉक्स मैं

बड़ी तादाद मैं पड़े हैं

तुम कहती हो

तुम्हें कुछ याद ही नहीं

कब भेजे थे तुम ने

यहीं तो है पागलपन

प्रेम का पागलपन

हर दिन क्लिक करती थी

याद रखती थी मेल भेजना है

कितना उल्टा सीधा था

सब कुछ उन दिनों

याद है ना तुम्हें

अपनी छत से मीलों दूर

पूर्णिमा का चाँद

समझाती थी तुम मुझे

और मैं तुम्हारी कुर्ती और

दुपट्टे की तारीफ मैं

घंटों गुजारता था

पर धन्य है यह

समय का रेंगता कीड़ा

दीमक की तरह

सब कुछ चाट जाता है

देखो ना, अब कितना सरल

कितना सपाट है

तुम्हारा मेरा रिश्ता

तुम्हे, कुछ भी याद नहीं रहता

और मैं कुछ भूल ही नहीं पाता!

~प्राणेश नागरी -१७.०२.२०१२

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Wednesday, February 15, 2012

कविता


कविता

अब मैं तुम को

जीना चाहता हूँ कविता

अब तुम आँखों में चुबती नहीं

क्यूंकि अब मेरे आंसूं

रुसवाई से नहीं डरते

धूप की लकीरें जब

कमरे के किवाड़ों से

छन कर आतीं हैं

फर्श पर बेतरतीब फैला


काफ्का और हक्सले

का वैचारिक जंगल

सार्तरे और कामू

का अस्तित्ववाद

सब कुछ उम्र की

दालान पर फिसलता

नज़र आता है

रह जाता है तो बस

सिकुड़ता सिमटता समय

हाथ की उंगलियाँ

चांदी जैसी सफ़ेद दाडी

और तुम कविता जो

लोरी सुनाती कभी

ग़ज़ल और गीत गाती

गुनगुनाती कभी

फाग और चैती के

रसीले अंग निखारती कभी

दादरा और ठुमरी का

राग बिठाती कभी

इठलाती बलखाती

मेरे सिरहाने बैठ

मीठी नींद सुलाती हो

अब मैं रुसवाई से नहीं डरता

अब मैं तुम को

जीना चाहता हूँ कविता

अब तुम बहुत याद आती हो!

~प्राणेश नागरी -१५.०२.२०१२.

Tuesday, February 14, 2012

तुम ने वादा किया था


तुम ने वादा किया था

तुम ने वादा किया था

परिवर्तन उत्क्रांती का आधार होगा

फिर काल चक्र क्या चाल चला

मैं तुम्हारी ज़रुरत कैसे बना

कैसे रिसती हुई रात तुमने

सौंप दी रेंगते जुगनुओं के रेले को

उफ़ यह दुएँ की लडखडाती लकीर

स्वप्न की पगडंडी कैसे हुई

सब कुछ जमा हुआ सा क्यूं है

क्यूं सांसें अन्धकार मैं झूल रही हैं

क्या सुन नहीं पाते तुम

मसली हुई कोंपलों का चीत्कार

काया के अतृप्त क्षण ,उतावले परिद्रश्य

क्यूं शून्य मैं बटक रहे लावारिस

किसे अब बलि चढ़ाना होगा

त्याग का अर्थ समझाने के लिए

किस संहार की कल्पना मैं हो साधक

अनर्थ का अर्थ करते रहोगे कब तक

~ प्राणेश नागरी १४.०२.२०१२

Saturday, February 11, 2012

बस यूं ही


बस यूं ही



जैसे मेरी गाढ़ी

कचर कचर टायर की आवाज़

बोलती हुई खिड़की

लडखडाती कभी चलती कभी!

जैसे तुम्हारी ड्रेससिंग टेबल

क्रोसीन और कैल्पोल की

टिकियों से लधी

क्रेडिट कार्ड के बिल ठूंसे हुए !

मातम करने को समय नहीं

और कुछ करना भी नहीं !

दूर देहात से आयी बैल गाड़ी

थकी हारी लालटेन से

जगमग लेम्प पोस्ट को ताकती!

मुश्किल का वक़्त है

जाने कौन बनाएगा सरकार?

जीना इतना भी दूभर नहीं

पांच छः हज़ार मैं चल जाता है!

चाय पिलाती तुम तो

थोडा सुस्ता लेता मैं

गिसता रहा तुम लोगों के लिए,

अब तो रहम करो

हाथ फैलाए होते, सर जुकाया होता

तो मैं भी होता कोई!

आज जाने क्यूं सूज गया है पाऊँ

गर्दन ऐंठ सी गयी है

सोंचता हूँ दोनूं

एक साथ तो जा नहीं सकते

जो जिंदा रहेगा -क्या करेगा वह?

उफ़ कहा ना तुम से

खिड़की बंद करो

बरसाती मच्छर काट रहे हैं!

~प्राणेश नागरी - ११.०२.२०१२

Tuesday, February 7, 2012

विस्थापन


विस्थापन -3

मैं तुम्हारे मोहल्ले फिर आना चाहता हूँ

तुम्हारी माँ से फिर सुनना चाहता हूँ

नहीं ब्याहनी बेटी तुम्हारे साथ

और सर ऊंचा कर के कहना चाहता हूँ

ले जाऊंगा ब्याह के इसे एक दिन

पर तुम्हारा मोहल्ला अब है कहाँ

खाली खाली ज़मीन है

रोते बिलखते पत्थर हैं

कुछ टूटे फूटे हैरान से खड़े

मातम करते मकानों के अस्ति पिंजर हैं

किस से मिलने आऊँ वहां !

मैं अपने स्कूल के मेरिट बोर्ड पर

अपने नाम के ऊपर जमी

धूल झाड़ना चाहता हूँ

पर मेरा स्कूल मेरा कहाँ रहा

सुना है उस का नाम

अब हिन्दू हाई स्कूल रहा ही नहीं

चीख चीख के सुनाना चाहता हूँ

"लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी

ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी....."

पर किसे सुनाऊँ, कैसे सुनाऊँ

मेरे माथे पर कुफ्र का फतवा चस्पां है!

वह चिड़िया का जोड़ा

जो हमारी खिड़की पर बैठा

चिपुर चिपुर करता हमें देखता रहता था

और जिसे देख अक्सर तुम शरमा जाती थी

सुना है वह अब किसी को देख चहकता नहीं

क्यूंकि वह अब खिड़की पर नहीं

किसी बन्दूक के साये में रहता है!

मेरे दिल मेरे मुसाफिर , हुआ फिर से हुक्म सादिर

कि वतन बदर.............

बहुत प्यारे हैं तुम्हारे अनुवाद

पर मेरी रीढ़ की हड्डी मैं

पिगलते सीसे जैसा उतर जाते हैं

घर की बहुत याद दिलाते हैं !

~प्राणेश नागरी -०८-०२-२०१२