Thursday, March 4, 2010

क्या कहें

तुम्हारी और ले जाती है
यह सुगंध से लधी हवा
मेरी छत प़र टपकती
पानी की बून्धें
चुपचाप सरकती रातें
पसीने से लथपथ खोलते दिन
फीकी चाय की कराहती चुस्कियां
टेबल प़र लेटे हुए सारे कलम
और लैपटॉप की खुली स्क्रीन I
तुम से बातें करते रहते हैं
मेरे उलजे उलजे बाल
मेरी चेहरे की झुरियूं मैं छुपे
हज़ारूं सवाल
मेरी आंखूं से लिपटी
अनगिनत जागती रातें
सांसूं की थकी थकी गुटन
थरथराते कांपते हाथ I
और मुझे घेरे रहता है
एक मायूस चेहरूँ का जंगल
हकलाता कभी शोर करता
कभी दुम हिलाता `
कभी घुटने टेकता I
और मेरे साथ चलता है
मीलूँ लम्भी ख़ामोशी ओडे
एक सुनसान रास्ता
जो एक चौखट प़र
ले जाता है मुझे
जहां रिश्तूं के कटघरे मैं
मूल्यूं का उपहास होता है I
बांस जैसी लम्बी भुजाओं से
अपना चेहराउतार कर
तुम्हारे सामने रखता हूँ
और हज़ारूं फूलूँ की चादर ओढ़े
तुम पहचान नहीं पाती मुझे

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