कभी कभी ज़िन्दगी
किसी मटमैली शाम को
बिस्तर की सलवटों मैं
ठिठक कर रुक जाती है I
कभी कभी रौशनी
काँधे से सरक कर
मेरे साये को
मुझ से लम्बा कर देती है I
तब वह साया
उदार की हंसी का मुखौटा पहने
अजनबी आंखूं से दूर तक
देखता रहता है मुझे I
वह मेरी कोख मैं पलता है
मेरे कण- कण से लिपटा
हर पल अपने अधूरेपन का
अहसास दिलाता है मुझे
एक अथाह अंधकार की पनाह मैं
हर सुबह मिलता हूँ उसे
और किसी मटमैली शाम को
मेरे बिस्तर की सलवटों मैं
छिपा हुआ मिलता है वह मुझे I
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