Sunday, July 22, 2012

हिमालय
अर्पण - तर्पण सब सम्पूर्ण कर
बहते पानी के ऊपर चल कर
आया तुम्हारे पास
पर हे हिमालय,
भैरव की रचना का
परित्याग हुआ मुझ से
सुन नहीं पाया
नृत्य का नाद सुर,
सत्ती का हवन कुण्ड में
दहन हुआ फिर एक बार
और तांडव नहीं हो पाया मुझ से
मैं महाकाल को साक्षी न कर पाया,
जीवन से मृत्यु तक का
क्रमागत विस्तार भोग नहीं पाया मैं!
और हिमालय, नीरस खडी हैं श्रंखलायें
बिखरी है , बिसरी है तुम्हारी संतान
कैसे सह पाते हो यह वैभव का विस्तार
मुझ से तो यह तुच्छ शरीर का बन्दन तक
सह्य नहीं होता
नपुंसक खड़ा देख रहा हूँ,
काया की जीर्णता को
क्यूं हिमालय, तांडव नहीं हो पाता मुझ से
तो क्या सत्ती भी नहीं हो सकता मैं?
~प्राणेश नागरी २२.०७.२०१२

4 comments:

  1. Sundar rachna !

    Regards
    Manju

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  2. Sarv-shaktimaan ka yu'n shakti-heen anubhav karna samay parivartan ka bahut mahatvpoorn abhilekh kahaa jaa sakta hai...rachna bahut khoob-surat shabdo'b se bunii gai hai.

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    1. Kalpana ka saamyik samasyaoon se smbandh ho jaaye to yeh sarvashaktimaan ki hunkaar ho jaatee hai.Aap ka bahut aabhaar.

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