सूर्य की लालिमा
बंद किवाड़ों के झरोखों से
छन छन बरस रही थी
तुम ने कहा था पूर्णता मिथ्या है
कुछ भी पूर्ण नहीं,
मैंने तुम्हारी और देख कर कहा था
आकाश की तरह विस्तृत हैं
तुम्हारी आँखें
मैं कब से अपने आप को ढूंढ रही हूँ,
संक्रामक है तुम्हारी पुतलियों की धमक
मेरा अंग अंग प्रज्वलन का साक्षी हो
तुम्हारे जीवात्मा के हवन कुण्ड में
समिधा की तरह अर्पित हो रहा है!
सुसम्य शौर्यवान संकेत का आभास लिए
मेरे अधरों पर हे अग्निदेव
कैसे टिके थे तुम्हारे नयन?
मैंने कहा था समर्पित हूँ
भस्म होना मर्यादा है मेरी
अलिंगंबध कर लो मुझे और
पूर्ण करो सृष्टि का निर्माण,
अब के बाद ना कहना
परिपूर्णता मिथ्या है!
तब तुम्हारे सतयुगी केश खुले थे
गंगा का जल प्रवाह
पूर्ण आहुति का मंगल मंत्र होम रहा था
शंख नाद से आकाश पाताल
नत मस्तक हो स्फुरित हो रह थे,
प्रकाश पुंज तक ले जा कर
मेरे दहकते अधरों पर
तुम्हारा नृत्य याद है मुझे
याद है मुझे ,तुम ने कहा था
यह पल शिवरात्री का स्वरुप है!
~प्राणेश नागरी