ऐसा भी नहीं
कि शून्य में भटकता हूँ मैं
यूं तो बहुत शोर रहता है आस पास,
जाने क्यूं फिर भी कभी कभी
मेरी सांसें तकती रहती हैं मुझे
और मौन से रिश्ता हो जाता है मेरा!
मेरे कलफ लगे सफ़ेद कुर्ते पर
जब गुलाल की परत चढ़ती है
तो शर्माई सी सामने दिखती हो तुम,
रात की रानी जब महकती है
तो खिड़की खोल के देखता हूँ
लगता है जैसे अभी अभी
सांझ का दीवा रख के गयी हो तुम,
मैंने अक्सर रातों को चाँद को तह लगाई है
तारों को लहराते दुपट्टे के कोने में बाँधा है
किताबों से खींच खींच के सूखे फूल
गुलदस्तों में सजाये हैं,
फिर भी हर बार तुम्हारे हिस्से के अंधियारे में
साँसों की बहस का एहसास हुआ है मुझे,
तुम हर बार यहीं कहीं आस पास लगी हो मुझे
वास्तव में तुम कभी कहीं गई ही नहीं
यहीं हम दोनों का सत्य है
लेकिन फिर भी जाने क्यूं अक्सर
मौन से रिश्ता हो ही जाता है मेरा !
~प्राणेश नागरी -१५.०५.२०१२
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