Monday, January 16, 2012

कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ


एक सांस की दूरी पर रहती हो तुम

और वह पल

जब मेरे हाथ छूना चाहते हैं

अनुभव करना चाहते हैं

तो समय कहता है

उद्भव के प्रगमन मैं

हाथ कहाँ बांस ले चला था तू

सुर की आरोही ले ले

गंध का आलाप छेड़

स्पर्श की सीमायें होती हैं

राग रस की कोई नहीं!

मैं यहीं कहीं होता हूँ

जैसे वायु से लिपटा मंत्र

जैसे हवन कुण्ड मैं लिपटी

अग्नि से समिधा की गंध

जैसे फूलों से लिपटा

रंग का आभास!

मैं तुम्हारे तन को ओढ़ता हूँ

सांसूं की घर्मी और ठिठुरन के

बीच के पल को समर्पित

अपनी कोख की गर्मी में

शब्द बीज का समावेश करता हूँ

प्रसव की पीड़ा भोगता हूँ

और हर्षित हो

कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ!

~प्राणेश १६.०१.२०१२

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