Wednesday, January 11, 2012
इक बार मैं वापस आऊँगा
कितनी लावारिस हैं पलकों की सरहदें
कोई भी छुवन साँसों की भिगो देती है इन्हें!
एक भूली बिसरी सी दोपहर
जब तुम्हारे काँधे से उतरती है
तो बौना कर देती है मुझे
मैं अपने आप मैं सिमट सा जाता हूँ !
और दिन जब भी चढ़ जाता है
तुम्हारे नाम का
जिस्म की बदबू से सनी तन्हाई
मीलों मेरे साथ रेंगती है !
कितना सुनसान है यह शहर
तुंहारा नाम लेता हूँ
तो हर गली हर कौना हर मौड़
बेसहारा सा तकता रहता है मुझे!
कुछ और नहीं है पास
कुछ शब्द हैं जो एक अमानत हैं
आसमानों से बहस नहीं करता मैं
वह ऊंचे सही पर बुलबुले हैं हवा के
हाँ वह शब्द मैं ले कर आऊँगा
इक बार मैं वापस आऊँगा !
~प्राणेश ११.०१.२०१२
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Bhut bdiya
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