Tuesday, January 24, 2012
उद्घोष
उद्घोष
देखो दीवार मैं चुन देना मुझे
किसी कब्र मैं जिंदा गाढ्ना
एक बार फिर सत्य कहा है मैंने
मेरी ज़ात समझौते नहीं कर सकती!
मैं मजहबों का गुलाम नहीं
सदियूं से इस गुफा मैं रहता हूँ
युग बदलते हैं मेरी भूख नहीं बदलती
ना बदलती हैं मेरी आशाएं!
और यह भूख , यह आशाएं
मुझे गुटने टेकने पर और
टिकवाने पर मजबूर करती है!
सदियूं से मैं सूर्य से संवाद कर रहा हूँ
मेरे शरीर का रेशा रेशा जल चुका है
मेरे आसपास एक दहकता शमशान
रुदन के सुर को सादने मैं व्यस्त है
और महाकाल का मौन उपवास
ह़र चीख का गला गौंट रहा है!
पाप और पुण्य मात्र एक शूल है
जो जागरूक अस्तित्व को भेदता है
भीख मैं मिली शांति से अच्छा है
रक्त रंजित हो युद्ध का उद्घोष करें
इस से पहले कि नैतिकता
कायरता बन उपहास करे
आओ उठें और पाशान काल मैं वास करें
जो मुंह का कौर छीनने को आगे बड़े
उस की लीला का अंत करें सर्वनाश करें!
~प्राणेश २४.०१.२०१२
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