बस इश्क रहा हद और अनहद की सरहद पर
मज़हब का पहरा है ही नहीं
काया की करवट बेमानी
लेना देना कुछ है ही नहीं!
यह इश्क का दरिया है गहरा
नासमज न तू पतवार पकड़
गर डूब गया तो डूबा रह
उस पार किनारा है ही नहीं!
जितना खोया उतना पाया
सब हारा तो मन जीत लिया
रंग साजन का ओढा तन पर
रंगने को अब कुछ है ही नहीं!
इक बार मुझे बस पार लगा
इस पार के बंदन सब झूठे
उस पार मेरा घर है मालिक
इस पार मेरा कुछ है ही नहीं!
मेरी ज़ात गयी मेरा नाम गया
बस इश्क रहा और कुछ ना रहा
तेरा नाम बसा है साँसों मैं
और इस के सिवा कुछ है ही नहीं!
~प्राणेश नागरी २३.०१.२०१२
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