Sunday, January 22, 2012

बस इश्क रहा


बस इश्क रहा
हद और अनहद की सरहद पर

मज़हब का पहरा है ही नहीं

काया की करवट बेमानी

लेना देना कुछ है ही नहीं!

यह इश्क का दरिया है गहरा

नासमज न तू पतवार पकड़

गर डूब गया तो डूबा रह

उस पार किनारा है ही नहीं!

जितना खोया उतना पाया

सब हारा तो मन जीत लिया

रंग साजन का ओढा तन पर

रंगने को अब कुछ है ही नहीं!

इक बार मुझे बस पार लगा

इस पार के बंदन सब झूठे

उस पार मेरा घर है मालिक

इस पार मेरा कुछ है ही नहीं!

मेरी ज़ात गयी मेरा नाम गया

बस इश्क रहा और कुछ ना रहा

तेरा नाम बसा है साँसों मैं

और इस के सिवा कुछ है ही नहीं!

~प्राणेश नागरी २३.०१.२०१२

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