एक विस्मृत पल
जिस लम्हा
धूप आकाश मैं तैरती है
जिस लम्हा
शाम अँधेरे मैं खो जाती है
मैंने कितनी बार
उस लम्हे को छू के देखा है
जैसे कोई भूखा
उस शीशे के पट को
छू के देखता है,जिस के पीछे
खाने का सामान पड़ा हो !
तुम से कहूं कि ना कहूं
अब कहूं कि कब कहूं
कितनी बार मैं यह जंग
अपने आप से हार चुका हूँ!
न मैं मजबूर हूँ और
ना तुम ज़रुरत हो मेरी
तुम बस ऐसी हो जैसे
सांस लेना , जैसे पानी पीना
जैसे पूजा करना , जैसे थक हार कर
बेवजह आसमान को ताकना
सच कहता हूँ सुनो, तुम बस हो
और मैं नहीं जानता क्यूं !
~प्राणेश नागरी -०२.०३.२०१२
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