Wednesday, March 21, 2012
नई दिल्ली के एअरपोर्ट पर
खिड़कियाँ खामोश रहती हैं
क्यूंकि खिडकियों पर कोई
दस्तक नहीं देता
खिड़कियाँ सूरज के लिए
रुकी नहीं रहतीं
क्यूंकि सूरज अक्सर
आ कर ठहर जाता है
इन बंद किवाड़ों पर,
और मातम मनाते
वक़्त के ज़ख्मों को सहते
सुराखों के बीच
छन छन बरसता है!
पर कभी कभी यह खिड़की
तुम्हारी छत पर खुलती है
वह छत जहां से तुम
चाँद को देखा करती थी !
अब भी ,
देखती रहती हो तुम
पर अब शायद
चाँद से आगे की दुनिया
क्यूंकि आगे बड़ना
तुम्हारा भी तो हक है
पता नहीं तुम्हारी
छत का वह कोना
जहां से तुम
चाँद को देखा करती थी,
या फिर खिड़की के
ज़ख़्मी किवाड़,
कुछ दिन से कुछ ना कुछ
शोर बहुत करता है
बहुत पीछे ले जाता है मुझे
और तुम आगे बढ़ती हो
चाँद के उस पार की दुनिया
ताकती रहती हो!
खिडकियों पर कोई
दस्तक नहीं देता
खिड़कियाँ बातें नहीं करतीं !
~प्राणेश नागरी-२७.०२.२०१२
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