बुद्ध का निर्माणवह कालातीत से
काया के कितने
प्रतिभिम्भ ले कर आया था
उस की लीला
जैसे पाषाण पर अंकित
युग युगांतर का इतिहास
वोह अपना सा था
फिर भी किसी का नहीं
वह जाग्रत अवस्था में था
स्वप्न जैसा
वह झड में था चेतनता जैसा
मैंने पूछा
मन को क्या समझाऊँ
सरगोशी से उस ने कहा
जीवन उत्सव है
और मृत्यु
अस्तित्व के उत्सव की पराकाष्ठा!
मैंने कहा ले चलो मुझे
चलो एक बार फिर
बुद्ध का निर्माण करें !
~प्राणेश नागरी
३०.१२.२०११
No comments:
Post a Comment