Monday, December 19, 2011

सजाए मौत


सजाए मौत
मील के पत्थर से टेक लगाई
मंजिल के निशाँ
मेरी पीठ पर खिंच गए!
अनगिनत खुल गए रस्ते
ज़मीन गोल है तो
मिलते ही होंगे कहीं ना कहीं !
सुना है अब ज़मीन गोल कहने पर नहीं
यह कहने पर सजाए मौत होती है
कि सभी रस्ते मिलते हैं कही ना कहीं!
शायद थक गया हूँ
हवा से बहस कर के
और थक जाने पर
घर की याद स्वाभाविक है!
इसीलिए कहता हूँ
ज़मीन गोल है और
मैं घर ढूँढ लूँगा
क्यूंकि सब रस्ते
मिलते हैं कहीं ना कहीं!
ठीक है एक सजा और सही
तुम मारते हो तो जी उठता हूँ मैं
मैं तनहा हूँ अकेला नहीं
इसीलिए मैं मर नहीं सकता
और तुम क़त्ले आम कर नहीं सकते!
~Pranesh Nagri 20/12/2011

1 comment:

  1. मैं तनहा हूँ अकेला नहीं
    इसीलिए मैं मर नहीं सकता

    The entire poem, its philosophy of a never ending circle where everything is intertwined.. beautiful poem, Pranesh ji .

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