Monday, December 19, 2011
एक ख़त
इस ख़त पर मैं तुम्हारा नाम लिखूं तो क्यूं कर
तुम तक पहुँचते पहुँचते
जाने किन किन हाथों से गुजरेगा यह
और जाने कौन - कौन
तुम से क्या - क्या सवाल करेगा
तुम बात टाल कर कह दोगी
अब का नहीं बहुत पहले का है यह
एक चलते फिरते कवि की कल्पना है
यूं ही पड़ा है कोई ख़ास बात नहीं
और फिर कितने दिन
पड़ा रहेगा तुम्हारी किताबों के बीच
शाख से टूटे बेजान पत्ते जैसा
या फिर उन कपड़ों की तरह
जिन को खरीद तो लेते हैं
पर पहनते नहीं कभी !
मैं समझ चुका हूँगा
कि अब मैं- मैं हूँ ही नहीं
फिर भी इन्तिज़ार होगा मुझे
उम्र की रवानी को भूल कर
उस ख़त के जवाब का !
और फिर एक दिन
वह मेरा ख़त वापस मिलेगा मुझे
एक पान के बीढ़े से लिपटा हुआ
क्यूंकि वह बिक चुका होगा
रद्दी के भाव तुमसे जाने कब!
इसीलिये सोंचता हूँ
इस ख़त पर मैं तुम्हारा नाम लिखूं तो क्यूं कर!
~pranesh nagri 19/12/11
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