Saturday, February 11, 2012
बस यूं ही
बस यूं ही
जैसे मेरी गाढ़ी
कचर कचर टायर की आवाज़
बोलती हुई खिड़की
लडखडाती कभी चलती कभी!
जैसे तुम्हारी ड्रेससिंग टेबल
क्रोसीन और कैल्पोल की
टिकियों से लधी
क्रेडिट कार्ड के बिल ठूंसे हुए !
मातम करने को समय नहीं
और कुछ करना भी नहीं !
दूर देहात से आयी बैल गाड़ी
थकी हारी लालटेन से
जगमग लेम्प पोस्ट को ताकती!
मुश्किल का वक़्त है
जाने कौन बनाएगा सरकार?
जीना इतना भी दूभर नहीं
पांच छः हज़ार मैं चल जाता है!
चाय पिलाती तुम तो
थोडा सुस्ता लेता मैं
गिसता रहा तुम लोगों के लिए,
अब तो रहम करो
हाथ फैलाए होते, सर जुकाया होता
तो मैं भी होता कोई!
आज जाने क्यूं सूज गया है पाऊँ
गर्दन ऐंठ सी गयी है
सोंचता हूँ दोनूं
एक साथ तो जा नहीं सकते
जो जिंदा रहेगा -क्या करेगा वह?
उफ़ कहा ना तुम से
खिड़की बंद करो
बरसाती मच्छर काट रहे हैं!
~प्राणेश नागरी - ११.०२.२०१२
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