Thursday, February 23, 2012

विस्थापन


विस्थापन

जब मैं इस घर से चला था

तुम्हारी कुछ उखड़ी साँसें

अपने कंधे पर

लाद के ले चला था मैं

अपने साथ

और वह सांसें

धूप मैं तप कर

उबलते टेंटों की घर्मी मैं

दफ़न हो गयी थीं

फिर आज इस कमरे की

चार दीवारी मैं

मकड़ी के लटकते जाल के बीच

तुम्हारी धड़कन क्यूं

सुनाई दे रही है मुझे

क्यूं इस मिटटी के फर्श पर

तुम्हारे क़दमों का एहसास

हो रहा है मुझे

तुम्हारी आवाज़

चेहरों के वीरान जंगल मैं

खो गयी थी कहीं

फिर कौन है जो

कोने मैं बैठा

गले को खंगाल रहा है

उफ़ यह यादों के

अनगिनत शूल क्यूं

छिल रहे हैं मेरे अस्तित्व को

और यह किस के हाथ की

शीतल छुवन

सहला रही है मेरी पीठ को

कौन है इस वीरान कमरे में

जहां से में तुम्हारी

उखड़ी उखड़ी सांसें

लाध के चला था

अपने कंधे पर

एक दिन !

~प्राणेश नागरी -२३.०२.२०१२

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