Friday, February 17, 2012
समय
समय
वह तुम्हारे
इलेक्ट्रोनिक प्रेम पत्र
मेरी मेल बॉक्स मैं
बड़ी तादाद मैं पड़े हैं
तुम कहती हो
तुम्हें कुछ याद ही नहीं
कब भेजे थे तुम ने
यहीं तो है पागलपन
प्रेम का पागलपन
हर दिन क्लिक करती थी
याद रखती थी मेल भेजना है
कितना उल्टा सीधा था
सब कुछ उन दिनों
याद है ना तुम्हें
अपनी छत से मीलों दूर
पूर्णिमा का चाँद
समझाती थी तुम मुझे
और मैं तुम्हारी कुर्ती और
दुपट्टे की तारीफ मैं
घंटों गुजारता था
पर धन्य है यह
समय का रेंगता कीड़ा
दीमक की तरह
सब कुछ चाट जाता है
देखो ना, अब कितना सरल
कितना सपाट है
तुम्हारा मेरा रिश्ता
तुम्हे, कुछ भी याद नहीं रहता
और मैं कुछ भूल ही नहीं पाता!
~प्राणेश नागरी -१७.०२.२०१२
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