Wednesday, February 15, 2012

कविता


कविता

अब मैं तुम को

जीना चाहता हूँ कविता

अब तुम आँखों में चुबती नहीं

क्यूंकि अब मेरे आंसूं

रुसवाई से नहीं डरते

धूप की लकीरें जब

कमरे के किवाड़ों से

छन कर आतीं हैं

फर्श पर बेतरतीब फैला


काफ्का और हक्सले

का वैचारिक जंगल

सार्तरे और कामू

का अस्तित्ववाद

सब कुछ उम्र की

दालान पर फिसलता

नज़र आता है

रह जाता है तो बस

सिकुड़ता सिमटता समय

हाथ की उंगलियाँ

चांदी जैसी सफ़ेद दाडी

और तुम कविता जो

लोरी सुनाती कभी

ग़ज़ल और गीत गाती

गुनगुनाती कभी

फाग और चैती के

रसीले अंग निखारती कभी

दादरा और ठुमरी का

राग बिठाती कभी

इठलाती बलखाती

मेरे सिरहाने बैठ

मीठी नींद सुलाती हो

अब मैं रुसवाई से नहीं डरता

अब मैं तुम को

जीना चाहता हूँ कविता

अब तुम बहुत याद आती हो!

~प्राणेश नागरी -१५.०२.२०१२.

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