क़त्ल एक सोंच का
रात, बिस्तर बिछाए बैठी थी
चाँद, कटोरा लिए था
भूख , पास के फुटपाथ पर
खरीदार देख रही थी!
वहां कोने मैं
मद्धम रौशनी थी
कमर और हाथ एक साथ
संगीतमय हिल रहे थे
पकवानों का कचरा
आस पास बिखरा था
इंसान और कुत्ते
एक साथ ज़मीन चाट रहे थे!
लड़खड़ाते कदम बाहर आये
हथेली पाऊँ के पास देखी
मुर्दा सोंच गुर्राई
हट बे नाली के कीड़े
एक रात भी
चैन से जीने नहीं देते!
अचानक आँखें चमकीं
हाथ उठ गया और
बदहवास गुर्र्बत चीखी
थू ,एक रात भी जीने का
हक नहीं तुझे !
~प्राणेश नागरी -१९.०२.२०१२
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