Thursday, May 31, 2012

सचमुच तुम्हारा

 
 
 
 
 
जब बहते दरिया ने
पहाड़ से कहा होगा
तुम्हारा सीना चीर के
निकल जाऊंगा एक दिन
तो पहाड़ हंसा होगा
और साथ में हँसे होंगे कुछ कंकर
जो पहले ही बिखर गए होंगे
पर अपने आप को अभी भी
पहाड़ ही समझ रहे होंगे!
किसी भी दायरे में झांक के देखो
जिसे सब कोसते होंगे
वह बीचों बीच खड़ा होगा
और जो उँगलियाँ उठाये खड़े होंगे
वह बस किनारे पर
अपनी पीठ थपथपाते होंगे!
पशुओं की चाल चलते चलते
इंसान बोलते कम और हिनहिनाते ज्यादा हैं
और हर पशु नाक की सीध में चलता है
क्यूंकि उस को हांकने वाले
उसे और किसी तरफ देखने ही नहीं देते
आँखों पर एक पट्टा बांध देते हैं!
पर समय रुकता नहीं
देखो बहते पानी ने
पहाड़ का सीना चीर दिया है
और दायरे के बीच खड़े
इंसान ने साबित किया है
कि धरती गोल है ,और हमें सिर्फ
बीच वाले को कोसना नहीं होगा,
परिधि को बिन्दु के पास पहुंचना होगा
और बिन्दु मैं विलीन हो कर एक दिन
एक नए आकार को जन्म देना होगा
सूर्य सा धमकना होगा!
~प्राणेश नागरी -२८.०५.२०१२

Wednesday, May 30, 2012

दो कवितायेँ

1.
मैं आज की क्या कहूं
आज सूरज
पश्चिम से निकला
आज उजाला
जुगनुओं के काँधे पर आया
आज मैंने
चाँद को तह लगायी
आज सितारे
तुम्हारे दुपट्टे में बाँध दिए
मैं आज की क्या कहूं
आज जाने
रात कहाँ खो गयी
आज बस
यूं ही सुबह हो गयी!

2.

कब से बैठा
उंगलियाँ गिन रहा हूँ
कुछ पल ही तो था
मैं तुम्हारे पास
सांसें भी नहीं गिन पाया
तुम को
ठीक से देख भी नहीं पाया
फिर यह उंगलियाँ क्या हुई
देख लेना शायद रह गयी
तुम्हारी अंगूठियों के बीच!





Sunday, May 27, 2012

1,2,3,

1.
क्या हुआ था उस दिन                                   
सच बता दो
हर दिन
मिलती थी तुम
और बस
चली जाती थी
उस दिन क्या हुआ था
मिली और आज तक
गयी ही नहीं
बताओ ना क्या हुआ था
उस दिन ....................?




2.
क्यों  देख रहे हो
मेरे मिट्टी से सने हाथ
ऐसे भी देखता है क्या कोई
कुछ अपनी बात कहो
कुछ वादे करो
कुछ पल पास बैठ जाओ
कुछ तारीफों के पुल बांधो
कुछ चिकना चुपड़ा सुनाओ
तब तक मैं
कब्र खोद के रखता हूँ
तुम्हारे जाने के बाद
इस रिश्ते को दफ़न करना है
और फिर एक नया
सिलसिला शरू करना है
फिर से चिकना चुपड़ा सुनना है!
3.
ना करना वादे कोई
उम्मीदें ना बांधना
जो जा रहे हों
बस उन को जाने देना
रात को रात कहना
झूठी  सुबह का दिलासा ना देना
सीधे साधे  होते हैं लोग
फूल से प्यारे होते हैं लोग
ना छुपाना कांटे उन से
उन को, लगने वाली
खरोंच की याद दिलाना

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Tuesday, May 22, 2012




मैं चाहता हूँ

कोफी की चुस्कियों में तुम घुल जाओ

और मेरे सांवले होंठों को छू कर

मेरी रग रग में समा जाओ!

मैं तुम को खिलखिलाती चांदनी में

देखना चाहता हूँ

मुझे यकीन है मोगरे के फूल

खिली चांदनी में और महकते हैं!

तुम्हारी आवाज़ का मंत्र तब से याद है मुझे

जब से अन्तर का शंख नाद सुना है मैंने!

मैं सभी आरतियों का अमृत चखना चाहता हूँ

क्यूंकि इन पात्रों में मुझे

तुम्हारे होंठों का प्रतिभिम्ब दिखता है!

कभी मेरी हस्ती को पहचान भी लो

तुम्हारे बदन की खुशबू ओडे बैठा हूँ

मैं ताज़े शहद की तरह पहचानता हूँ तुम्हें

हाँ यह मिठास सचमुच

मेरी आँखों से मेरे भीतर आती है

मैं चाहता हूँ तपती दोपहरी को समुद्र किनारे

तुम्हे हरे नारियल की मलाई जैसा खा जाऊं!

~प्राणेश नागरी-०३.०५.२०१२.


Wednesday, May 16, 2012

मौन

 
 
ऐसा भी नहीं
कि शून्य में भटकता हूँ मैं
यूं तो बहुत शोर रहता है आस पास,
जाने क्यूं फिर भी कभी कभी
मेरी सांसें तकती रहती हैं मुझे
और मौन से रिश्ता हो जाता है मेरा!
मेरे कलफ लगे सफ़ेद कुर्ते पर
जब गुलाल की परत चढ़ती है
तो शर्माई सी सामने दिखती हो तुम,
रात की रानी जब महकती है
तो खिड़की खोल के देखता हूँ
लगता है जैसे अभी अभी
सांझ का दीवा रख के गयी हो तुम,
मैंने अक्सर रातों को चाँद को तह लगाई है
तारों को लहराते दुपट्टे के कोने में बाँधा है
किताबों से खींच खींच के सूखे फूल
गुलदस्तों में सजाये हैं,
फिर भी हर बार तुम्हारे हिस्से के अंधियारे में
साँसों की बहस का एहसास हुआ है मुझे,
तुम हर बार यहीं कहीं आस पास लगी हो मुझे
वास्तव में तुम कभी कहीं गई ही नहीं
यहीं हम दोनों का सत्य है
लेकिन फिर भी जाने क्यूं अक्सर
मौन से रिश्ता हो ही जाता है मेरा !
~प्राणेश नागरी -१५.०५.२०१२

Wednesday, May 9, 2012

एक बुलबुला पानी का

एक बुलबुला पानी का
एक बुलबुला था पानी का
बीच हथेली आ कर ठहर गया!
उगते सूरज ने किरणों से सींचा
सतरंगा हो अपनी ज़ात पर
रश्क करने लगा,
झिलमिल रंग- बिरंगा
कभी अंगूठी में, कभी नथनी पर
भरी मांग में और कभी गिरेबान पर
कहीं भी बैठने के स्वप्न देखता रहा,
पर सतरंगा जो रंग था उस का
सूरज की किरणों का उधार था!
समय ने करवट बदली
दोपहरी और तपती दोपहरी
वह एक पानी का बुलबुला
पल भर में मिट गया
मिटते मिटते एक दाग छोड़ गया
सब रंगों का हथेली के बीचों बीच,
क्यूं कर ना होता ऐसा
सतरंगा था वह बुलबुला
और सातों रंग थे उधार के!
पानी का वह बुलबुला
जाने क्यूं भूल गया
कितना भी रश्क करो अपनी ज़ात पर
फिर भी हर रंग उधार का
एक दाग ही तो होता है!
~प्राणेश नागरी-२८.०४.२०१२