Thursday, August 23, 2012

अमलतास

 
 
 
 
 
 
तुम्हारी नज़रें भेदती हैं
मेरे वजूद के आर पार चली जाती हैं
वहाँ उस कोने तक
जहां मैं पिगल कर पूरे कमरे में फैल जाता हूँ
और दीवार पर सीलन की तरह रेंगता हुआ
घडी की छोटी बड़ी सूईयों से लिपट जाता हूँ
मुझे अब वक़्त पहचानता है !
देखो आस पास की
सभी आवाजें भी पहचानती है मुझे
तुम से बातें करते करते
अमलतास के पेढ़ सा हो गया हूँ
फैला हुआ हरियाला- पीला
मेरी जडें देखो दूर तक निकल चुकी हैं
अब ना कहना मुझ से पूछे बिना
कहाँ निकल गए तुम?
देखना बस यूं ही चलते चलते
हम मिल ही जायेंगे कहीं ना कही
यूं तुम शोर कब तक सह पाओगे
फर्क बस इतना सा है
मेरे क़दमों के निशाँ पत्थर हो गए होंगे
मुझ तक पहुँचने की खातिर
ज़ख्म सहने होंगे क्या सह पाओगे?
~प्राणेश नागरी -२३.०८.२०१२

Thursday, August 9, 2012

धर्मक्षेत्र

 
 
हर बार
जन्म और मृत्यु के अंतराल में
शिशुपाल , दशानन और हिरन्यकश्यप
तुम्हारा उद्य देखा है मैंने,
नरसिम्हा अवतरण से ले कर
वासुदेव, तुम्हारे सुदर्शन चक्र
और धैर्य के प्रतिरूप का
साक्षी भी हूँ मैं!
अब के किस रूप में
प्रकट हुए हो तुम, हे दैत्य
और तुम्हारा वध करने हेतु
किस रूप में आना होगा मुझे!
अब मुझ में इतना सामर्थ्य नहीं
कि कुरुक्षेत्र में विराट स्वरुप ले
धनञ्जय तुम से संवाद करुं,
क्यूंकि अपने परिजनों का वध
तुम पहले ही कर चुके हो
अब तुम को परित्याग की
कौन सी कथा सुनाने आऊँ?
अब जहां तुम खड़े हो
उस धर्मक्षेत्र में आत्महत्या संभव है
पर महाभारत संभव नहीं !
~प्राणेश नागरी-१०.०८.२०१२

Tuesday, August 7, 2012

मैं अब चलना नहीं चाहता!

 
 
अँधेरे में डूबे इस कमरे की दीवारें
सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े
जाने कब से खो गए हैं ,
मुझे अक्सर मेरा पता तब चलता है
जब मेरी हडियों के आस पास
मांस की एक एक बोटी
मुझ से अलग हो कर शून्य में
विलीन हो जाती है!
बस अब मैं चलना नहीं चाहता
मैं कमरे के बीचोंबीच खडी
तुम्हारी शक्ल की
पांचवी दीवार से लिपट कर
रौशनी का मातम नहीं करना चाहता !
सुन तू मुझे मेरा पता मत बता
में जानता हूँ
रौशनी के दायरे में वह सब कंकाल
जो मुझे घूर कर देख रहे हैं ,
सब के सब मेरे कातिल हैं
और उन की मांस की बोटियाँ भी
शून्य में विलीन हो चुकी हैं!
फर्क बस इतना है
कि उन की खिड़कियाँ अभी
अन्धकार में डूबी नहीं हैं
इसीलिए वह बंद दरीचों से
ठहाके लगाने का उत्सव मना रहे हैं!
मुझ पर एक एहसान कर
इस कमरे की हर दीवार में आग लगा
मैं अपना रास्ता दूंढ तो लूं
यहाँ से निकल तो पाऊँ
मुझ से अब नहीं होता
रौशनी का मातम
मैं अब चलना नहीं चाहता!
~प्राणेश नागरी -०६.०८.२०१२