Friday, December 30, 2011

बुद्ध का निर्माण


बुद्ध का निर्माण

वह कालातीत से
काया के कितने
प्रतिभिम्भ ले कर आया था
उस की लीला
जैसे पाषाण पर अंकित
युग युगांतर का इतिहास
वोह अपना सा था
फिर भी किसी का नहीं
वह जाग्रत अवस्था में था
स्वप्न जैसा
वह झड में था चेतनता जैसा
मैंने पूछा
मन को क्या समझाऊँ
सरगोशी से उस ने कहा
जीवन उत्सव है
और मृत्यु
अस्तित्व के उत्सव की पराकाष्ठा!
मैंने कहा ले चलो मुझे
चलो एक बार फिर
बुद्ध का निर्माण करें !

~प्राणेश नागरी

३०.१२.२०११

Wednesday, December 28, 2011

उस ने कहा


उस ने कहा
विष क्या उतरेगा
सागर मंथन किया है कभी
मैंने कहा हाँ दो बूँद आंसू पिया है अक्सर !
उस ने कहा
कहाँ डूंड लोगे
आकाश का विस्तार देखा है कभी
मैंने कहा हाँ
भिक्षु पात्र टटोला है अक्सर !
उस ने कहा
संतुष्टि कैसी
बलिदान किया है कभी
मैंने कहा हाँ
मन को मारा है अक्सर !
उस ने कहा
जीत कैसी
सूर्य से संवाद किया है कभी
मैंने कहा हाँ
भूख को सहलाया है अक्सर !
उस ने कहा
त्याग कैसा
व्रत दान किया है कभी
मैंने कहा हाँ
रोते को हंसाया है अक्सर !
उस ने कहा
तप्ति कैसी
प्रीत की रीत निबाई है कभी
मैंने कहा हाँ
अल्तमास को जलते देखा है अक्सर !
उस ने कहा
तपस्या कैसी
जप तप किया है कभी
मैंने कहा हाँ सांसूं की परिक्रमा की है अक्सर !
उस ने कहा
जीवन कैसा
सुख दुःख देखा है कभी
मैंने कहा हाँ
फूटपाथ पर घर बनते देखा है अक्सर !
~प्राणेश नागरी २८/१२ २०११

Thursday, December 22, 2011

बाढ़


बाढ़
तब मेरे शहर मैं आग लगी थी
सड़क सड़क खून के दब्बे
गली गली चीखें
कहीं इस का खून
कहीं उस का खून
फिर मेरे शहर मैं बाढ़ आयी
गली गली सड़क सड़क
बस पानी ही पानी
खून के दब्बे मिट गए
चीखें दब गयीं
उस ने कहा
आगे मत जा पानी है
यह बोला
पीछे हट पानी है
जाने बाढ़ का क्या धर्म था
मैं अपने आप से पूछता रहा
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि मेरे शहर से बाढ़ जाये ही नहीं!

Monday, December 19, 2011

सजाए मौत


सजाए मौत
मील के पत्थर से टेक लगाई
मंजिल के निशाँ
मेरी पीठ पर खिंच गए!
अनगिनत खुल गए रस्ते
ज़मीन गोल है तो
मिलते ही होंगे कहीं ना कहीं !
सुना है अब ज़मीन गोल कहने पर नहीं
यह कहने पर सजाए मौत होती है
कि सभी रस्ते मिलते हैं कही ना कहीं!
शायद थक गया हूँ
हवा से बहस कर के
और थक जाने पर
घर की याद स्वाभाविक है!
इसीलिए कहता हूँ
ज़मीन गोल है और
मैं घर ढूँढ लूँगा
क्यूंकि सब रस्ते
मिलते हैं कहीं ना कहीं!
ठीक है एक सजा और सही
तुम मारते हो तो जी उठता हूँ मैं
मैं तनहा हूँ अकेला नहीं
इसीलिए मैं मर नहीं सकता
और तुम क़त्ले आम कर नहीं सकते!
~Pranesh Nagri 20/12/2011

एक ख़त
इस ख़त पर मैं तुम्हारा नाम लिखूं तो क्यूं कर
तुम तक पहुँचते पहुँचते
जाने किन किन हाथों से गुजरेगा यह
और जाने कौन - कौन
तुम से क्या - क्या सवाल करेगा
तुम बात टाल कर कह दोगी
अब का नहीं बहुत पहले का है यह
एक चलते फिरते कवि की कल्पना है
यूं ही पड़ा है कोई ख़ास बात नहीं
और फिर कितने दिन
पड़ा रहेगा तुम्हारी किताबों के बीच
शाख से टूटे बेजान पत्ते जैसा
या फिर उन कपड़ों की तरह
जिन को खरीद तो लेते हैं
पर पहनते नहीं कभी !
मैं समझ चुका हूँगा
कि अब मैं- मैं हूँ ही नहीं
फिर भी इन्तिज़ार होगा मुझे
उम्र की रवानी को भूल कर
उस ख़त के जवाब का !
और फिर एक दिन
वह मेरा ख़त वापस मिलेगा मुझे
एक पान के बीढ़े से लिपटा हुआ
क्यूंकि वह बिक चुका होगा
रद्दी के भाव तुमसे जाने कब!
इसीलिये सोंचता हूँ
इस ख़त पर मैं तुम्हारा नाम लिखूं तो क्यूं कर!
~pranesh nagri 19/12/11

Saturday, December 17, 2011

साये


साये
साये का पीछा न करना
रौशनी के मोहताज होते हैं साये!
भरी दोपहरी मैं बौने हो जाते हैं
हर शामो- सुबह
लेट जाते हैं लम्बे हो कर
और मिटटी मैं मिला देते हैं साये!
साये साथ नहीं चलते कभी
या तो पीछे रह जाते हैं, या फिर
नई मंज़िलूँ की और दोड़ते हैं साये!
साये की कोई शक्ल नहीं होती
पत्थर से लिपटे तो पत्थर हैं साये
ज़मीन पर रेंगें तो मिटटी हैं
हर दरो दीवार पर लहराते हैं
और रात होते ही गुम हो जाते हैं साये !
साये का पीछा ना करना
अपने ना पराये होते हैं साये!

Thursday, December 15, 2011

शब्द कुछ नहीं बोलते


शब्द कुछ नहीं बोलते

शब्द कुछ नहीं बोलते
बस पड़े रहते हैं
बर्फ की सिल की तरह
हाँ तुम ने कुछ कहा होगा
क्यूंकि शब्द तुम्हारी आंखूं की तरह हैं
जितना देखो उतना ही
पलकूं की सरहदें भीग जाती हैं!
खामोशी एक शोर है
चेहरूँ के जंगल के बीच
मर्यादा को पहचानने का शोर
तुम्हारी सांसूं का शोर सुना होगा
खिड़की पर कौवा बोल रहा है
कोई ख़ामोशी पुकार उठेगी शायद!
चाँद को चुरा ही लूँगा मैं
अमावस की रात डल जाये तो
जुगनुओं के रेले का क्या
जब चाहो गठरी बांद ले चलूँ
शब्द बर्फ की सिल की तरह हैं
शब्द कुछ बोलते नहीं!

Monday, December 12, 2011

मैं ख़ामोशी सुनाता हूँ!


मैं ख़ामोशी सुनाता हूँ!

मैं सागर का घन -गर्जन हूँ

मैं ख़ामोशी सुनाता हूँ!

एक लम्हे की उड़ान मेरी

सिकुड़ी हुई सर्द रातों मैं

सांसूं की सरगोशी हूँ

और मखमली बिस्तर की

सलवटों मैं पनाह पाता हूँ !

मैं मिथ्या और ब्रम के बीच

मोगरे का महकता फूल हूँ

काया के हवन कुण्ड की

लपटों की लीला के बीच

रटा - रटाया मंत्र हूँ

मैं एक अधूरी मुस्कान हूँ!

रस और गंध की लालिमा

पलकूं को भोजिल कर

सांसूं को जब भटकाती है

राग और वैराग्य की

चोखट पर खड़ा मैं

पुनर्वास के गीत गाता हूँ!

पलकूं की भीगी सरहद पर

यादों का मौन स्पंदन हूँ

सूखी जंगल की लकड़ी को

लहरूं के गीत सुनाता हूँ

मैं सागर का घन -गर्जन हूँ

मैं खामोशी सुनाता हूँ!

Friday, December 2, 2011


सफ़र एक बूंद का
चलो चलते हैं वहाँ
स्वप्न भीग नहीं जाते जहां ,
मंज़िलूँ की दूरी क़दमों के निशान से
नापी नहीं जाती जहां !
जहां धरती और आकाश
अलग अलग दिखते नहीं
और हर मौड़ पर धड़कते दिल
सांसूं से आलिन्गंबध हैं जहां!
मन्दिरूं की मूर्तियूं से निकल कर
आनंद ह्रदय की गरमाहट मैं
बस चुका है जहां
मृत्यु का भय नहीं है जहां!
जहां वादे निबाहने के लिए
कसमें नहीं खानी पड़ती
प्रेम की व्याख्या नहीं करनी पड़ती
रिश्ते दोहराने नहीं पड़ते जहां!
चलो उस जगह सुख के कुछ पल
दागों मैं नहीं बांदने पड़ते जहां !
जहां मौसमूं के बदलने से
फूल मुरझा नहीं जाते
पेड कविता करते हैं
और हरियाली गुनगुनाती है जहां !
जहां सब कुछ शरू होता है
और हर एक का अन्त निश्चित है जहां
चलो वहाँ, सत्य को निर्भयता का
प्रतीक माना जाता है जहां
अनर्थ का अर्थ
मन की मर्यादा नहीं है जहां !
जहां काया की लीला
निर्वान का स्वरुप नहीं
अग्नि के साक्षी पल
बहस का मुद्दा नहीं हैं जहां
जहां वासना और अहंकार
शिशु से उस का कौर नहीं छीनती
चलो हम भी चले वहाँ !

Sunday, November 27, 2011


मुझे किसी की सांसें छू गयीं
मैं इंसान से फ़रिश्ता हो गया
तो इंसान से फ़रिश्ते का सफ़र एक सांस की छुअन ने करवा दिया! ओशो कहते है उस तक पहुँचने के लिए कुछ तो उस जैसा चाहिए अपने आप मैं! कुछ भी उस के जैसा एक सीढ़ी है जो उस तक पहुंचा देगी! यह ही एक कारण है कि हर एक ध्यान की विधि से पहले काया और मन की स्वच्छता पर जोर दिया जाता है! क्यूंकि जो स्वच्छ है वोही सुन्दर है और जो सुन्दर है वोही शिव है!यह इस युग कि त्रासदी है कि हम ध्यान को दवा और गुरुओं को एक अनदेखे अंगरक्षक की तरह समझते हैं जो हमारे हर कर्म मैं हमारे लिए कुछ भी करेंगे!और हम कहते हैं मुझे कुछ नहीं होगा मेरे गुरु जी मेरे साथ हैं! अब हम ने स्वार्थ मैं उन के सब काम बंद कर दिए और अपने साथ ले चले!
इंसान की पूरी ज़िन्दगी एक झूठ को सच बनाने में लगती है और कुछ लोग एक बार दोखा खाते हैं और कुछ बार बार! बुले शाह की हडियाँ कब्र से निकल कर रक्स करती हैं -शायद यार मन जाये! कबीर की मटकी फूटती है तो वह कहता है भला हुआ, पनिया बरन से छूट तो गए! क्या बुरा है तू किसी और का हो गया मैं छूट तो गया तुम को अपनाने से!अंत एक उत्सव है और अनंत इस उत्सव का जीवन भर और हर दिन आप के साथ रहना!
हर बार कुछ घटित होता है तो मन सुजाव देता है! मन के पास कितनी कहानियाँ हैं! अनगिनत कहानियाँ और इन्हें सुना सुना मन कहता है तुम तो नहीं उस को समझना चाहिए! मन आप को सोंचने ही नहीं देता! तर्क असंभव , बात की सोंच असंभव , मन कहता है क्या किया तुम ने? यह तो होना ही चाहिए ! किस बात से डरते हो , यह तुम्हारा हक है क्यूंकि यह तुम्हारा जीवन है! और जब कोई और वोहीं हक मांगता है तो असंभव ! क्यूंकि तब आप को लगता है की परिपक्वता सिर्फ आप मैं ही है और आप कुछ भी कर सकते हैं!
हज़रत सुलतान बाहु एक बहुत बड़े सूफी शायर और फकीर हुए हैं , कहते हैं
अलिफ़ अल्लाह चम्बे दी बूटी , मुर्शिद मन विच लाई हूँ
नफी अस्बात दा पानी मिलिया , हर रगे हर्जाए हूँ .
अन्दर बूटी मुश्क मचाया , जान फुल्लां ते आयी हूँ
जीवे मुर्शिद कामिल बहु , जिन एह बूटी लई हूँ
मेरे मुर्शिद ने मेरे मन मैं अल्लाह के नाम की खुशबू वाली भेल लगाई है! मेरे ना मानने से ले कर मेरे खुदा से मिलने तक के सफ़र ने इस भेल को सींचा है! जब अलौकिक सचाई मेरे सामने आई मेरा मन खुशबू से भर गया और अल्लाह के नाम से प्रफुलित हुआ! ऐ मेरे मुर्शिद तुम ने यह खूबसूरत खुशबू वाली भेल मेरे मन मैं लगाई ,अल्लाह करे तू हमेशा मेरे लिए बना रहे!
भुले शाह कहते हैं:
न मैं अन्दर वेद किताबां
न विच भंगां ना शराबां
न विच रिन्दान मस्त खराबां
न विच जागन ना विच सौन
ना मैं वेद की बड़ी बड़ी किताबूँ मैं हूँ,ना अफीम या शराब के नशे मैं हूँ! न किसी नशेडी के मस्त अहंकार मैं हूँ , ना नींद ने मुझे घेरा है और ना ही मैं जाग रहा हूँ . मैं की जाना मैं कौन?
सरलता का नाम , सुन्दरता का नाम, सत्य का नाम अल्लाह है , प्रभु है या भगवान् है! अगर यह सब नहीं जानते तो लाख कोशिश करो अल्लाह को प्रभु को भगवान् को और सब से बड़ी बात अपने आप को कभी भी जान नहीं पाओगे!
मेरी काया के दरीचूं पर
पांच पीरून ने दस्तक दी
सारा अम्बर गुनगुना उठा
और मेरा वजूद दरगाह हो गया!

Thursday, November 24, 2011

विस्थापन


विस्थापन
मेरी माँ कहती है
वहाँ चिता की आग ठंडी होगी
मेरी पत्नी कहती है
सेब खाऊंगी तो अपने आँगन के
मेरे बेटे को याद ही नहीं
उस का स्कूल कैसा था
मेरे कुछ दोस्त
मार डाले गए
कुछ अनजानी बीढ़ मैं
दौड़ते दौड़ते मर गए
और कुछ हर दिन
एक नयी मौत मर रहे हैं
मेरी माँ दीवारूं से बातें करती है
मेरी पत्नी रुंधे गले से "बोम्बरो " गाती है
मेरे बेटे का सब कुछ लुट चुका है
एक दिन हम सब ख़तम हो जायेंगे
और हमारी कागज़ पर लिखी कहानी
रद्दी के भाव बिक जाएगी
हाँ मेरे दोस्त
सच कहा था तुम ने
मुझे क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता!

Tuesday, November 1, 2011


ज़िन्दगी किसी शामो - सुबह की मोहताज नहीं

तुम्हारे हसीन पाऊँ की दूल है वक़्त

झुक जाती हैं निगाहें झुक जाते हैं सर

हम बस एक ख्वाब देखते हैं

तुम्हारी आंखूं मे!

ख्वाब तुम्हारी आरज़ू का,

ख्वाब तुम्हारी सांस की खुशबू का

और वक़्त की देहलीज़ पर

अपूर्ण से पूर्ण हो जाते हैं

वक़्त तुम्हारे होंठूं की गर्मी में पिगलता है

हर सुबह और हर शाम

तुम्हारे नाम का सजदा करती है

एक परिंदे की पहली परवाज़ है ज़िन्दगी

जो मेरे होने से लेकर

तुम्हारे होने के एहसास तक

तुम्हे ढूंढते ढूंढते मुझे

खुदा तक पहुंचा देती है!

सच है तुम्हारे हसीन पाऊँ की दूल है वक़्त

Saturday, September 17, 2011

तुम को तो एक ज़िन्दगी चाहिए थी


तुम को तो एक ज़िन्दगी चाहिए थी , कहाँ से लाता ज़िन्दगी? मैंने समजाया था तुम को कि जब से तुम्हारे बदन की खुशबू ओढ़े बैठा हूँ यहाँ, तब से इस कब्र से खुदी मिट्टी को सूंघ रहा हूँ! तुम्ही ने तो कहा था मेरे साथ चलो आसमान छूने! और अब जब तक मिट्टी जैसा ना हो जाऊं आसमान छू लूं तो आखिर कैसे! तुम्हारी बात ही और है , तुम्हारे साथ सात समंदर हैं और मंथन करो तो गहरायी ही गहरायी है! अमृत है, विष है, मोती है , मनका है क्या नहीं है? उफ़ लहरूं का संगीत है , बादल की घर्जना है पर मैं ........? मैं मीलूँ लम्भी ख़ामोशी ओढ़े पड़ा हूँ और मेरे साथ है तो समुद्र को समेटे एक साहिल बस!
यह जो अनगिनत पत्ते हवा मैं तैरते इठलाते तुम्हारे पग चिन्हूं के स्पर्श का स्वप्न देख रहे हैं, कहीं ना कहीं मेरे बिख्शू पात्र से असंतुलित हो बिखर गए हैं! मैं शाख से गिरे पत्ते की विरह गाथा उस के सूखे आज पर लिख नहीं पाया और इसीलिए तुम्हारे पाऊँ का स्पर्श ना पा सका दब कर कही बिखर गया!यही है मेरा सत्य कोरे कागज़ पर अंकित सत्य! वह सत्य जिसे सुनने का सामर्थ्य चाहिए वर्ना दो बूँद आंसू बह जाएँ - मैं सारी की सारी सचाई का गला घोंट दूंगा! ऐसा मैंने कितनी बार किया है अपने ही सत्य को जुठ्लाया है क्यूंकि दहकते शरीर की हर आंच मेरे अस्तित्व को कर्राहने पर मजबूर करती थी! और उन कमरूं की चार दीवारूं के बीच तुम पांचवी दीवार बने मुझे देखते रहते थे - बेजान!
वह हज़ारूं सचाइयूं से गुजरने के बाद एक खुले आकाश तले मिला मुझे!मेरी रग - रग मैं दौड़ता ज़हर पी लिया उसने! वह अजीब था खेल मैं हार गया और वह जीत के सारे सामान मेरी झोली मैं डाल गया! जाने क्या था उन आंखूं मैं मेरे तपते जिस्म को पनाह मिली, और मैं कब चल दिया उस के साथ मुझे मालूम नहीं! दोस्त तुम से क्या छिपाना , कुछ भी तो छुपाया नहीं कभी तुम से, और कुछ भी ऐसा नहीं जो सुना नहीं तुम ने, तो आज क्यूं हार गए तुम? सत्य सुनने किसी चोखट पर नहीं जाना पड़ता! सत्य सुनने के लिए मन ही काफी है!
देखो कितनी मिट्टी मेरे आस पास बिखरी पडी है आज भी! और मैं सूंघ रहा हूँ इस को मुट्ठी बाँध बाँध के! तुम ही हो जो आकाश तक पहुंचा सकता है मुझे! इसीलिये इस कब्र को अपने साथ ले जा रहा हूँ जाने कब तुम सूरज के सातवें घोड़े पर बिठा कर रुखसत कर दो?

Tuesday, August 30, 2011

Yaaden

काया के तहखाने मैं अनगिनत कहानिया सदियूं से पड़ी हैं! कुछ नयी कुछ पुरानी कुछ बेतुकी और कुछ जो आज तक अपना मतलब तलाश रही हैं! यह बिना शीर्षक भटक रही हैं और हर कोने मैं थकी नजरूं से अपनी पनाह दूंढ रही हैं ! कुछ सीधी साधी बातें जाने क्यूं पेचीदा हो जातीं हैं? रेत पर तहरीर लिखी, लहरूं पर शक्लें खींच लीं, हाथ देखा तो खाली और एक लम्बी लकीर लिए चल दिए झोला लटकाए " चल खुसरो घर आपनो सांझ भई चहूँ देस "!

हम ने अपनी कब सोंची? किसी ने बुलाया चले आये, किसी ने ठोकर मारी निकल गए ! घर वाले घर जानें " हम तो राही प्यार के हम से कुछ ना बोलिए"! सुख और दुःख, क्या इस का बयान करें? किसी के साथ एक कप चाय पिया तो सुख और ना पी पाए तो शायद दुःख! बस इतनी सी बात है इस के आगे समझ ही नहीं पाए!

ऐसा भी नहीं कि हम ने कोशिश ना की हो! हर कहानी का शीर्षक ढूंडा पर किसी कहानी का अंत ही नहीं मिला तो अन्नंत का क्या शीर्षक ढूँढ पाते! कुछ तो होगा जो कोई भी साथ ना दे पाया? क्या करें हम बाज़ार मैं बिकने लायक ना थे और तंग हाली इतनी कि बस देखते रह गए ! बाज़ार के बाज़ार उठ गए और हम " कारवां गुज़र गया गुब्बार देखते रहे"! लेकिन खाली हाथ खाली कहाँ रहते हैं कोई ना कोई कुछ ना कुछ रख ही देता है!अगर इंसान प्यार नहीं कर सकते रहम तो कर ही सकते हैं! और फिर ज़रुरत किसे नहीं होती और खाली ज़मीन की तरह खाली हाथ भी सब की मल्कियत हो जाते हैं!और अक्सर बेवक़ूफ़ बनना जाने क्यूं अच्छा लगने लगता है!

कहाँ से लाऊँ वह दरीचा जिस की तुम्हें तलाश है ,जिसे खोलते ही कुछ चेहरे अपने से दिखाई दें! कहाँ से लाऊँ वह गुज़रे ज़माने की खुली हवा! यह बेचैनी नहीं है, बद हवासी नहीं है, बेहोशी भी नहीं है! यह वह मंज़र है जिसे पड़ाव दर पड़ाव याद करता हूँ और तुम्हारे लाख दोहराने पर भी भूल नहीं पाता हूँ ! क्यूंकि यह मंज़र मैं किसी के पास गिरवी नहीं रख पाया और ना ही मैं उधार की हंसी के लिए काया की बोली लगा पाया! तुम कहते हो आज को देखो आज जो है वह सत्य है! मैं भी मानता हूँ कि आज सब से बड़ा सत्य है और इसीलिए जो गुज़रा हुआ आज है वह जूठा नहीं लगता मुझे!

यह क्या बिना शीर्षक की एक और कहानी हम लिख पड़े हैं! क्या इस को भी तहखाने मैं बंद होना होगा? क्या यह भी अपनी जगह किसी अजनबी कोने मैं ढूँढती फिरेगी?शायद यह भी होना है -शायद येहीं सत्य है!

Thursday, August 11, 2011

Ab chalna hi behtar hai


अब चलना ही बेहतर है!
पूरा आँगन साँझ ढले ही गुम सुम , खोया खोया सा देख रहा है सनाटे में ऊंगती खिड़की की दस्तक! कुछ तो टूटा टूटा सा है , तारा हो या भरम तुम्हारे लौट के आने का ! या फिर टूट गया है बंदन कोई ,कोई वादा, कुछ तो बेशक टूट गया है! टूट गया है ,यूं ही साँसें उखड़ी उखड़ी हैं क्या ? यूं ही क्या कोई उलटे रस्ते जाते जाते छोड़ चला है दूर किसी को छुट पुट गलियूं पर या टेढ़े मेडे रास्तों की ढलानों पर!
अब चलना ही बेहतर है!
दूर है मंजिल राह अकेली संगी साथी एक एक कर के छूट गए हैं! भूले बिसरे गीत थे जितने सब के सब खो डाले हैं ,अब क्या है जो साथ चलेगा!सपने सारे बिखर गए हैं ,बिखर गया माधुर्य स्पर्श का ,बिखर गया काया का आँगन !
अब चलना ही बेहतर है!
मीलूं लम्भी ख़ामोशी को ओढ़े कब तक मील के पत्थर जैसा गिनता जाऊं आने जाने वालूं के पग चिन्हूं को! कब तक शून्य से नीरसता के गान सुनूँ मैं , कब तक मैं मुस्काऊँ जूठी हंसी ठिठोली सहता जाऊं! कब तक सिले सिले होंठूं से हाहाकार मचाऊँ कब तक सूनी सूनी आंखूं से आंसूं की बरखा बरसाऊँ !
अब चलना ही बेहतर है!
पूछूंगा एक दिन मैं तुम से , ऐसी क्या थी खता कि मुझ को बीच बवंडर सोंप दिया लहरूं को? क्या था ऐसा जिस के कारण तोड़ दिए सब बंदन और वह वादे सारे ? जीना सिखलाया था जिस ने हाथ पकड़ कर क्यूं उस को जुट्लाया क्यूं माथे पर उस के तुम ने दाग़ लगाया? एक दिन पूछूंगा मैं तुम से जब धरती क़ी छाती से एक आग का दरिया फूटेगा ,जब अम्बर टूट के बरसेगा तब कौन सी नैया से पार करोगे जीवन के इस सागर को!
पर अब चलना ही बेहतर है!

Sunday, July 31, 2011

bulla ki jaana main kaun



Mai.n aaj apne saare geet shehar kii deevaaro.n parr likhna chahtaa hoo.n, taaki kisi ko bhi tumhaari aankho.n ka kaajal chori na karnaa padday. Mai.n apne sitar ke surr bha.nvro.n kii gunjann ke saath baa.ndhnaa chahtaa hoo.n taaki kisi ko bhi chaand se tumhare ghar ka pataa poochnaa na padday. Mai.n jaanta hoo.n zindagi kabhi darr nahi sakti aur maut kabhi marr nahi sakti. Issiliye sooraj se lagataar pooch raha hoo.n ki iss shehar ke dareecho.n parr chaand kabb thehrega?

Tumaahri chhann-chhann karti paayal jab sattrangi indradhanush ke kamaan se chhoot’tee hai toh meelo.n-lambi khamoshi achaanak gunngunaa leti hai. Saavan ki phuhaar purvaa ke aa.nchal se lipti boodhay Baba ke aashirvaad ka maun spandann mere maathay ki jhurriyo.n mei.n sajaa deti hai. Pardes mei.n sohar mere a.ngnaa gungunaati hai aur phaag aur chaitee apne anoothay rang bikhair deti hai.

Abbke jaane Ganga Kinaare koi ka.nvariyaa Shivling ki archanaa mei.n kalash ka neer chadhaati hogi? Jaane Baba ke saamne chandann se lipte kisi bhaa.nvre ke haath kisi manchali ki maa.ng mei.n jeevan-yatra ka vishvaas bhar rahe ho.nge? Jaane abb hum tum kahi.n mill bhi rahe ho.nge? Ye gaatha hai aur ye swapno.n ke sheeshmahal mei.n janmi hai, aur swapno.n ke sheeshmahal mei.n annginatt chehre saamne aate hai.n. Kuch apne, aur kuch apne hokar bhi paraaye-paraaye se aur in mehalo.n mei.n jo raasta nahi pehchaan paate, bhool-bhulaiyya.n mei.n kho jaate hai.n.

Jaane kyo.n kahaniya.n sunaate sunaate gala roondh jaata hai, be’buss aa.nsoo ki ladi lag jaati hai. Haath aa.nkh takk lejaane ko mann karta hai. Parr haath hee kahaa.n hai.n, voh toh aastaa.n parr dua maa.ngte maa.ngte chhoot jaate hai.n

Bhulleya kee jaanaa.n mai.n Kaun?

(English Translitteration by Sh.Alok Aima)

Friday, July 29, 2011


मैं आज अपने सारे गी शहर की दीवारों पर लिखना चाहता हूँ ताकि किसी को भी तुम्हारीआंखूं का काजल चोरी ना करना पड़े! मैं अपने सितार के सुर भंवरूं कीघुन्जन के साथ बांदना चाहता हूँ ताकि किसी को भी चाँद से तुम्हारे घरका पता पूछना ना पड़े! मैं जानता हूँ ज़िन्दगी कभी डर नहीं सकती औरमौत कभी मर नहीं सकती!इसीलिए सूरज से लगातार पूछ रहा हूँ कि इसशहर के दरीचूं पर चाँद कब ठहरेगा?
तुम्हारी छन-छन करती पायल जब सतरंगी इन्द्रधनुष की कमान सेछूटती है तो मीलूँ लम्बी ख़ामोशी अचानक गुनगुना लेती है!सावन कीफुहार पुरवा के आँचल से लिपटी बूढ़े बाबा के आशीर्वाद का मौन स्पंदनमेरे माथे की झुरियूं मैं सजा देती है!परदेस मैं सोहर मेरे अंगनागुनगुनाती है और फाग और चैती अपने अनूठे रंग बिखेर देती है!
अब के जाने गंगा किनारे कोई कांवरिया शिव लिंघ कीअर्चना मैं कलशका नीर चढ़ाती होगी? जाने बाबा के सामने चन्दन से लिपटे किसी भांवरेके हाथ किसी मनचली की मांग मैं जीवन यात्रा का विश्वास भर रहे होंगे?जाने अब हम तुम कहीं मिल भी रहे होंगे?यह गाथा है और यह स्वप्नूं केशीश महल मैं जन्मी है और स्वप्नूं के शीश महल मैं अनगिनत चेहरेसामने आते हैं! कुछ अपने और कुछ अपने होकर भी पराये- पराये सेऔर इन मह्लूँ मैं जो रास्ता नहीं पहचान पाते भूल भुलैया मैं खो जाते हैं!
जाने क्यूं कहानियाँ सुनाते सुनाते गला रुंध जाता है , बेसबब आंसू की लड़ी लग जाती है ! हाथ आंखूं तक ले जाने कोमन करता है ! पर हाथ होते ही कहाँ हैं वह तो आस्तां पर दुआ मांगते मांगते छूट जाते हैं! भुला की जानां मैं कौन?

Saturday, July 2, 2011

Kuch sawal


निद्रा और अनिद्रा
के पलूँ के बीच
कुछ अनदेखे सपने
आंखूं की झील में
भीगते रहते हैं!
जुगनूं के रेले से लिपटी
जाने कहाँ - कहाँ
भटकती है रात!
तितलियूं के परूँ की
कतरन ओढ़े
बेबस लगती है
सभी रंगूँ की फुहार !
और भूमंच का यह मूर्तिमान
सूर्य के दहकते अधरूं पर
चरमराती काय का
नृत्य देखता है !
क्यूं नहीं जाती तुम्हारे साथ
तुम्हारे हिस्से की सौंच
क्यूं सांसूं की पहचान के पलूँ में
उभरते हैं
एक पर एक सवाल !

In between the moments of
sleep and sleeplessness
unvisualised dreams
get soaked in the
depth of sunken eyes.
The night rolls with
the line up of jugnoos
and is lost
in the unknown.
I wear the crafted
wings of butterflies
but every shade looks
desperate and worn out
These sculpted idols
on the stage of life
watch the dance of
worn out physique
on the burning lips of sun.
why does your share of thoughts
not leave along with you?
why do you live as
a big question mark
in between
the moments of realisation
of the cycle of breath?