Tuesday, December 18, 2012

शिवरात्री

 
सूर्य की लालिमा
बंद किवाड़ों के झरोखों से
छन छन बरस रही थी
तुम ने कहा था पूर्णता मिथ्या है
कुछ भी पूर्ण नहीं,
मैंने तुम्हारी और देख कर कहा था
आकाश की तरह विस्तृत हैं
तुम्हारी आँखें
मैं कब से अपने आप को ढूंढ रही हूँ,
संक्रामक है तुम्हारी पुतलियों की धमक
मेरा अंग अंग प्रज्वलन का साक्षी हो
तुम्हारे जीवात्मा के हवन कुण्ड में
समिधा की तरह अर्पित हो रहा है!
सुसम्य शौर्यवान संकेत का आभास लिए
मेरे अधरों पर हे अग्निदेव
कैसे टिके थे तुम्हारे नयन?
मैंने कहा था समर्पित हूँ
भस्म होना मर्यादा है मेरी
अलिंगंबध कर लो मुझे और
पूर्ण करो सृष्टि का निर्माण,
अब के बाद ना कहना
परिपूर्णता मिथ्या है!
तब तुम्हारे सतयुगी केश खुले थे
गंगा का जल प्रवाह
पूर्ण आहुति का मंगल मंत्र होम रहा था
शंख नाद से आकाश पाताल
नत मस्तक हो स्फुरित हो रह थे,
प्रकाश पुंज तक ले जा कर
मेरे दहकते अधरों पर
तुम्हारा नृत्य याद है मुझे
याद है मुझे ,तुम ने कहा था
यह पल शिवरात्री का स्वरुप है!
~प्राणेश नागरी 

Saturday, December 8, 2012

मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते

मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं तुम्हारी ख़ामोशी को गठरी बाँध
काँधे पर उठा लाया हूँ
मैं इस सफ़र को समय के सीने पर
सनद कर देना चाहता हूँ,
वोह देखो तुम्हारे और मेरे
बहस के अनगिनत मुद्दे
सब पीछे छूट गए हैं,
रह गई हैं कुछ घटनाएं
बौनी सी गमलों में उगी
बोन्साई जैसी ।
तुम्हारी आवाज़ दबी उँगलियों से बह कर
कोरे कागज़ पर फैल रही है
और आने वाला समय
इसे एक अनजान घटना नहीं
इतिहास का अछूता मोड़ मान लेगा
कहीं कोई हीर कोई रान्जा जन्म लेगा
और भूख से परास्त चीथड़ों से लिपटे
काया के अवशेष विलाप करते रहेंगे
देव कद समय से हारे
गमलों में पड़े बोन्साई जैसे।
मेरी सोंच के सभी दायरों में
तुम भी एक बोन्साई की तरह उगे हो
सच तो यह है कि
मैं शब्दों से हार गया हूँ
इसीलिए कहता हूँ मैं बदल नहीं सकता
यह बातें बस हम तक ही रह जाती हैं
और यह सामान्य घटना से आगे
कुछ भी नहीं हो पाती,
और आने वाला समय
इसे सनद नहीं कर पाता।
हाँ मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते
क्यूंकि शब्द बौने नहीं होते
शब्द होते हैं देव कद।