Tuesday, August 30, 2011

Yaaden

काया के तहखाने मैं अनगिनत कहानिया सदियूं से पड़ी हैं! कुछ नयी कुछ पुरानी कुछ बेतुकी और कुछ जो आज तक अपना मतलब तलाश रही हैं! यह बिना शीर्षक भटक रही हैं और हर कोने मैं थकी नजरूं से अपनी पनाह दूंढ रही हैं ! कुछ सीधी साधी बातें जाने क्यूं पेचीदा हो जातीं हैं? रेत पर तहरीर लिखी, लहरूं पर शक्लें खींच लीं, हाथ देखा तो खाली और एक लम्बी लकीर लिए चल दिए झोला लटकाए " चल खुसरो घर आपनो सांझ भई चहूँ देस "!

हम ने अपनी कब सोंची? किसी ने बुलाया चले आये, किसी ने ठोकर मारी निकल गए ! घर वाले घर जानें " हम तो राही प्यार के हम से कुछ ना बोलिए"! सुख और दुःख, क्या इस का बयान करें? किसी के साथ एक कप चाय पिया तो सुख और ना पी पाए तो शायद दुःख! बस इतनी सी बात है इस के आगे समझ ही नहीं पाए!

ऐसा भी नहीं कि हम ने कोशिश ना की हो! हर कहानी का शीर्षक ढूंडा पर किसी कहानी का अंत ही नहीं मिला तो अन्नंत का क्या शीर्षक ढूँढ पाते! कुछ तो होगा जो कोई भी साथ ना दे पाया? क्या करें हम बाज़ार मैं बिकने लायक ना थे और तंग हाली इतनी कि बस देखते रह गए ! बाज़ार के बाज़ार उठ गए और हम " कारवां गुज़र गया गुब्बार देखते रहे"! लेकिन खाली हाथ खाली कहाँ रहते हैं कोई ना कोई कुछ ना कुछ रख ही देता है!अगर इंसान प्यार नहीं कर सकते रहम तो कर ही सकते हैं! और फिर ज़रुरत किसे नहीं होती और खाली ज़मीन की तरह खाली हाथ भी सब की मल्कियत हो जाते हैं!और अक्सर बेवक़ूफ़ बनना जाने क्यूं अच्छा लगने लगता है!

कहाँ से लाऊँ वह दरीचा जिस की तुम्हें तलाश है ,जिसे खोलते ही कुछ चेहरे अपने से दिखाई दें! कहाँ से लाऊँ वह गुज़रे ज़माने की खुली हवा! यह बेचैनी नहीं है, बद हवासी नहीं है, बेहोशी भी नहीं है! यह वह मंज़र है जिसे पड़ाव दर पड़ाव याद करता हूँ और तुम्हारे लाख दोहराने पर भी भूल नहीं पाता हूँ ! क्यूंकि यह मंज़र मैं किसी के पास गिरवी नहीं रख पाया और ना ही मैं उधार की हंसी के लिए काया की बोली लगा पाया! तुम कहते हो आज को देखो आज जो है वह सत्य है! मैं भी मानता हूँ कि आज सब से बड़ा सत्य है और इसीलिए जो गुज़रा हुआ आज है वह जूठा नहीं लगता मुझे!

यह क्या बिना शीर्षक की एक और कहानी हम लिख पड़े हैं! क्या इस को भी तहखाने मैं बंद होना होगा? क्या यह भी अपनी जगह किसी अजनबी कोने मैं ढूँढती फिरेगी?शायद यह भी होना है -शायद येहीं सत्य है!

Thursday, August 11, 2011

Ab chalna hi behtar hai


अब चलना ही बेहतर है!
पूरा आँगन साँझ ढले ही गुम सुम , खोया खोया सा देख रहा है सनाटे में ऊंगती खिड़की की दस्तक! कुछ तो टूटा टूटा सा है , तारा हो या भरम तुम्हारे लौट के आने का ! या फिर टूट गया है बंदन कोई ,कोई वादा, कुछ तो बेशक टूट गया है! टूट गया है ,यूं ही साँसें उखड़ी उखड़ी हैं क्या ? यूं ही क्या कोई उलटे रस्ते जाते जाते छोड़ चला है दूर किसी को छुट पुट गलियूं पर या टेढ़े मेडे रास्तों की ढलानों पर!
अब चलना ही बेहतर है!
दूर है मंजिल राह अकेली संगी साथी एक एक कर के छूट गए हैं! भूले बिसरे गीत थे जितने सब के सब खो डाले हैं ,अब क्या है जो साथ चलेगा!सपने सारे बिखर गए हैं ,बिखर गया माधुर्य स्पर्श का ,बिखर गया काया का आँगन !
अब चलना ही बेहतर है!
मीलूं लम्भी ख़ामोशी को ओढ़े कब तक मील के पत्थर जैसा गिनता जाऊं आने जाने वालूं के पग चिन्हूं को! कब तक शून्य से नीरसता के गान सुनूँ मैं , कब तक मैं मुस्काऊँ जूठी हंसी ठिठोली सहता जाऊं! कब तक सिले सिले होंठूं से हाहाकार मचाऊँ कब तक सूनी सूनी आंखूं से आंसूं की बरखा बरसाऊँ !
अब चलना ही बेहतर है!
पूछूंगा एक दिन मैं तुम से , ऐसी क्या थी खता कि मुझ को बीच बवंडर सोंप दिया लहरूं को? क्या था ऐसा जिस के कारण तोड़ दिए सब बंदन और वह वादे सारे ? जीना सिखलाया था जिस ने हाथ पकड़ कर क्यूं उस को जुट्लाया क्यूं माथे पर उस के तुम ने दाग़ लगाया? एक दिन पूछूंगा मैं तुम से जब धरती क़ी छाती से एक आग का दरिया फूटेगा ,जब अम्बर टूट के बरसेगा तब कौन सी नैया से पार करोगे जीवन के इस सागर को!
पर अब चलना ही बेहतर है!