Tuesday, June 26, 2012


अर्पण के पलों में,

ब्रम्हांड से उतरती हुई

सांस की परिक्रमा में

जब जीवन का आभास हुआ मुझे

मेरी जिव्हा धरती की धुरी समान

अपरिवर्तित परिवर्तन की साक्षी हो

एक एक अंग का संवेग नापती रही!

सभी नक्षत्रों को

नरमुंडों की माला में पिरो

काल के त्रिशूल से

ललाट के बीचों बीच

सलवटों के सहारे

गले से बाँध दिया मैंने!

अब रुक जा - रुक जा अब बस

इसे प्यास मत समझ मेरी

कामना मत समझ

यह बस होनी है, होनी को

कौन टाल पाया है?

~ प्राणेश नागरी-२६.०६.२०१२

Monday, June 18, 2012

 
 
 
 
तू सुन
तू सुन ,
सुन ले मेरी बात
जब भी मुझे लगा है
तुम को छू लिया है मैंने
अक्सर अपने हाथ को ही
अपने हाथ में पा लिया है मैंने
तुम्हारी रग रग जब
मेरे वजूद के साथ जुड़ जाती है
कई रागों की
आरोही और अवरोही
जन्म लेती है
तू सुन मेरी बात
सुना है मुझे क्या कभी?
तुम्हारी धड़कन का सुर हूँ मैं
सुन तो तू
मेरे स्पर्श की ज्वाला में
खुद को देखा है कभी
सोने जैसा धमक उठता है
तुम्हारा अंग अंग,
सांसें मोगरे का फूल हो जाती हैं
तुम हो..............
बस यह एहसास
हर तरफ फ़ैल जाता है
सब कुछ तुम्हारा हो जाता है!
और क्या कहूं तुम से
फिर भी तू सुन
प्यार करता हूँ तुम से
बस इतनी सी है बात!
(This poem is inspired by a Punjabi poem written by VandanaKL Dawar )