अर्पण के पलों में,
ब्रम्हांड से उतरती हुई
सांस की परिक्रमा में
जब जीवन का आभास हुआ मुझे
मेरी जिव्हा धरती की धुरी समान
अपरिवर्तित परिवर्तन की साक्षी हो
एक एक अंग का संवेग नापती रही!
सभी नक्षत्रों को
नरमुंडों की माला में पिरो
काल के त्रिशूल से
ललाट के बीचों बीच
सलवटों के सहारे
गले से बाँध दिया मैंने!
अब रुक जा - रुक जा अब बस
इसे प्यास मत समझ मेरी
कामना मत समझ
यह बस होनी है, होनी को
कौन टाल पाया है?
~ प्राणेश नागरी-२६.०६.२०१२