Friday, September 28, 2012

उपवास


 
कितनी बार चन्द्रकला का

अनुभव किया मैंने,

कितने उपवास रखे        

पर नाद सुर की उत्पति

अगर तुम्हारे कंठ के श्वास से हुई

तो महादेव मेरा उपवास

विष ग्रहण कर क्यूं संपूर्ण नहीं हुआ

क्यूं अतृप्त रह

मन को साध नहीं पाया मैं?

गर्भ के अन्धकार से ज्ञानोदय की आस ले

बाल्यकाल से जीर्णावस्था तक प्रतीक्षित रहा,

मन ,बुधि, अहंकार

हर मनोविकार की सीमाएं बाँधी,

पर यह पिपासा कंठ से लेकर

मन की अनुभवहीन धरातल पर

चन्द्र कला की तरह

घटती रही बढती रही,

और महाकाल तुम्हारे आवाहन पर

एक नए विकास की आशा लिए,

मैं नयी दिशा की और ले चला

इस जीर्णता को और बाल्यकाल को!

यह अपरिवर्तित परिवर्तन,

यह अर्थ से अनर्थ का गुण गान,

मुझे इस संगीत के स्वामित्व की

अभिलाषा अब नहीं!

मुझे हे सुर सम्राट- नटेश्वर

प्रथम सुर के आलाप में

विलोम अविलोम के प्रपंच से मुक्त कर!

यह चन्द्र कला ,यह उपवास ,

यह पिपासा सह्य नहीं मुझे,

मुझे अस्तित्व की निस्तब्द्ता ओढने दे

मुझे मेरा शून्य लौटा!

~प्राणेश नागरी -२७.०९.२०१२

 

Wednesday, September 19, 2012

रिश्तों का नमन

मैं उन रिश्तों का नमन करता हूँ
जो समय के साथ बदलते हैं,
चूँकि खुद के साथ मेरा रिश्ता
ना बदल पाया अब तक
अपने आप को नमन नहीं कर पाया मैं!
अलग- अलग दर्पणों के सामने
खुद को रखा , देखा , परखा
एक से एक नए वस्त्र से ढका तन को
गंगा नहाये,इत्र लगाये, खूब चन्दन मला
पर नहीं बदलना था ,बिलकुल नहीं बदला,
और इसीलिए आज तक अपने आप को
नमन नहीं कर पाया मैं !
मैं उन सभी उत्सुकताओं का नमन करता हूँ
जो कोलम्बस की तरह
मनुष्य को कुछ ना कुछ नया
ढूँढने पर विवश करती हैं,
और नित नए पड़ाव पर ले चलती हैं,
और एक हम हैं
माँ ने कहा था चन्दा मामा आयेंगे
खुले आसमान के नीचे
आज तक कटोरी लिए खड़े हैं,
और इसीलिए कोई नया आसमान
आज तक नहीं ढूँढ पाए अपने लिए !
बदलना शायद एक कला है
और इस भूमंच पर
मौसम कलाकारी करें तो करें,
धरती,आकाश,सूरज,वायू और जल भी कला दर्शायें
तो फिर हर पल बदलने वाला यह मानव
भला कहाँ जाए और किस का नमन करे?

Monday, September 10, 2012

मेरा नाम


मेरा नाम तुम आस पास

रख देना कहीं

उस तकिये के नीचे रख देना

जिस के लिहाफ पर

मेरे माथे के पसीने ने बेबसी की

कितनी दास्तानें लिखी हैं!

या उस दीवार के पास रख देना

जहां तुम मेरे जाने के बाद

मेरे साये को अक्सर टांग देती थी

मैं आज भी वहीँ कुछ उलटी सीधी

टंगी तस्वीरों के बीच खड़ा

अपने साये को नापने की

कोशिश कर रहा हूँ

मैं अब भी शायद कद से

बौना दिखता हूँ तम्हे!

या फिर मेरा नाम

किसी झुलसती दोपहरी में

गुलमोहर के फूलों के बीच रख देना

कुछ करवटें मैं भी बदलूं

कोई आग मेरे भी नसीब में हो

देखो चांदी का हो गया हूँ मैं!

मेरा नाम बस आस पास ही

रख देना तुम -जाने कब

सपनों को भिगोना पड़े तुम्हे

और तुम जानती हो

मैं पलकों की सरहदों पर

बहते दरिया रखता हूँ !

~प्राणेश नागरी -०४.०९.२०१२