कितनी बार चन्द्रकला का
अनुभव किया मैंने,
कितने उपवास रखे
पर नाद सुर की उत्पति
अगर तुम्हारे कंठ के श्वास से हुई
तो महादेव मेरा उपवास
विष ग्रहण कर क्यूं संपूर्ण नहीं हुआ
क्यूं अतृप्त रह
मन को साध नहीं पाया मैं?
गर्भ के अन्धकार से ज्ञानोदय की आस ले
बाल्यकाल से जीर्णावस्था तक प्रतीक्षित रहा,
मन ,बुधि, अहंकार
हर मनोविकार की सीमाएं बाँधी,
पर यह पिपासा कंठ से लेकर
मन की अनुभवहीन धरातल पर
चन्द्र कला की तरह
घटती रही बढती रही,
और महाकाल तुम्हारे आवाहन पर
एक नए विकास की आशा लिए,
मैं नयी दिशा की और ले चला
इस जीर्णता को और बाल्यकाल को!
यह अपरिवर्तित परिवर्तन,
यह अर्थ से अनर्थ का गुण गान,
मुझे इस संगीत के स्वामित्व की
अभिलाषा अब नहीं!
मुझे हे सुर सम्राट- नटेश्वर
प्रथम सुर के आलाप में
विलोम अविलोम के प्रपंच से मुक्त कर!
यह चन्द्र कला ,यह उपवास ,
यह पिपासा सह्य नहीं मुझे,
मुझे अस्तित्व की निस्तब्द्ता ओढने दे
मुझे मेरा शून्य लौटा!
~प्राणेश नागरी -२७.०९.२०१२