वह सब जो मुझ से
जाने अनजाने मिल जाते हैं
अपने हो जाते हैं
रिश्ते बनाते हैं
साथ चलते हैं
निबाहने की कसमें खाते हैं
वह सब जिन को ज़रुरत होती है
जो अकेले डर जाते हैं,
वह सब कहते हैं.......
मैं बहुत अच्छा हूँ
जूठ नहीं बोलता, सत्यवादी हूँ
सब को खुश रखता हूँ
दोखा नहीं देता,बेईमान नहीं हूँ
वह कहते हैं.......
मैं उन से प्यार करता हूँ
उन की दुत्कार सुनता हूँ
खुशियाँ बांटता हूँ
रूठों को मनाता हूँ
वह सब कहते हैं.....
कितना अच्छा हूँ मैं
और वह सब
जब छोड़ के चले जाते हैं
तो मैं सोंचता हूँ
मैं इतना अच्छा क्यूं हूँ
और इतना अच्छा होना
ज़रूरी क्यूं है,आखिर क्यूं ?