काया के तहखाने मैं अनगिनत कहानिया सदियूं से पड़ी हैं! कुछ नयी कुछ पुरानी कुछ बेतुकी और कुछ जो आज तक अपना मतलब तलाश रही हैं! यह बिना शीर्षक भटक रही हैं और हर कोने मैं थकी नजरूं से अपनी पनाह दूंढ रही हैं ! कुछ सीधी साधी बातें जाने क्यूं पेचीदा हो जातीं हैं? रेत पर तहरीर लिखी, लहरूं पर शक्लें खींच लीं, हाथ देखा तो खाली और एक लम्बी लकीर लिए चल दिए झोला लटकाए " चल खुसरो घर आपनो सांझ भई चहूँ देस "!
हम ने अपनी कब सोंची? किसी ने बुलाया चले आये, किसी ने ठोकर मारी निकल गए ! घर वाले घर जानें " हम तो राही प्यार के हम से कुछ ना बोलिए"! सुख और दुःख, क्या इस का बयान करें? किसी के साथ एक कप चाय पिया तो सुख और ना पी पाए तो शायद दुःख! बस इतनी सी बात है इस के आगे समझ ही नहीं पाए!
ऐसा भी नहीं कि हम ने कोशिश ना की हो! हर कहानी का शीर्षक ढूंडा पर किसी कहानी का अंत ही नहीं मिला तो अन्नंत का क्या शीर्षक ढूँढ पाते! कुछ तो होगा जो कोई भी साथ ना दे पाया? क्या करें हम बाज़ार मैं बिकने लायक ना थे और तंग हाली इतनी कि बस देखते रह गए ! बाज़ार के बाज़ार उठ गए और हम " कारवां गुज़र गया गुब्बार देखते रहे"! लेकिन खाली हाथ खाली कहाँ रहते हैं कोई ना कोई कुछ ना कुछ रख ही देता है!अगर इंसान प्यार नहीं कर सकते रहम तो कर ही सकते हैं! और फिर ज़रुरत किसे नहीं होती और खाली ज़मीन की तरह खाली हाथ भी सब की मल्कियत हो जाते हैं!और अक्सर बेवक़ूफ़ बनना जाने क्यूं अच्छा लगने लगता है!
कहाँ से लाऊँ वह दरीचा जिस की तुम्हें तलाश है ,जिसे खोलते ही कुछ चेहरे अपने से दिखाई दें! कहाँ से लाऊँ वह गुज़रे ज़माने की खुली हवा! यह बेचैनी नहीं है, बद हवासी नहीं है, बेहोशी भी नहीं है! यह वह मंज़र है जिसे पड़ाव दर पड़ाव याद करता हूँ और तुम्हारे लाख दोहराने पर भी भूल नहीं पाता हूँ ! क्यूंकि यह मंज़र मैं किसी के पास गिरवी नहीं रख पाया और ना ही मैं उधार की हंसी के लिए काया की बोली लगा पाया! तुम कहते हो आज को देखो आज जो है वह सत्य है! मैं भी मानता हूँ कि आज सब से बड़ा सत्य है और इसीलिए जो गुज़रा हुआ आज है वह जूठा नहीं लगता मुझे!
यह क्या बिना शीर्षक की एक और कहानी हम लिख पड़े हैं! क्या इस को भी तहखाने मैं बंद होना होगा? क्या यह भी अपनी जगह किसी अजनबी कोने मैं ढूँढती फिरेगी?शायद यह भी होना है -शायद येहीं सत्य है!