Friday, December 30, 2011
बुद्ध का निर्माण
बुद्ध का निर्माण
वह कालातीत से
काया के कितने
प्रतिभिम्भ ले कर आया था
उस की लीला
जैसे पाषाण पर अंकित
युग युगांतर का इतिहास
वोह अपना सा था
फिर भी किसी का नहीं
वह जाग्रत अवस्था में था
स्वप्न जैसा
वह झड में था चेतनता जैसा
मैंने पूछा
मन को क्या समझाऊँ
सरगोशी से उस ने कहा
जीवन उत्सव है
और मृत्यु
अस्तित्व के उत्सव की पराकाष्ठा!
मैंने कहा ले चलो मुझे
चलो एक बार फिर
बुद्ध का निर्माण करें !
~प्राणेश नागरी
३०.१२.२०११
Wednesday, December 28, 2011
उस ने कहा
उस ने कहा
विष क्या उतरेगा
सागर मंथन किया है कभी
मैंने कहा हाँ दो बूँद आंसू पिया है अक्सर !
उस ने कहा
कहाँ डूंड लोगे
आकाश का विस्तार देखा है कभी
मैंने कहा हाँ
भिक्षु पात्र टटोला है अक्सर !
उस ने कहा
संतुष्टि कैसी
बलिदान किया है कभी
मैंने कहा हाँ
मन को मारा है अक्सर !
उस ने कहा
जीत कैसी
सूर्य से संवाद किया है कभी
मैंने कहा हाँ
भूख को सहलाया है अक्सर !
उस ने कहा
त्याग कैसा
व्रत दान किया है कभी
मैंने कहा हाँ
रोते को हंसाया है अक्सर !
उस ने कहा
तप्ति कैसी
प्रीत की रीत निबाई है कभी
मैंने कहा हाँ
अल्तमास को जलते देखा है अक्सर !
उस ने कहा
तपस्या कैसी
जप तप किया है कभी
मैंने कहा हाँ सांसूं की परिक्रमा की है अक्सर !
उस ने कहा
जीवन कैसा
सुख दुःख देखा है कभी
मैंने कहा हाँ
फूटपाथ पर घर बनते देखा है अक्सर !
~प्राणेश नागरी २८/१२ २०११
Thursday, December 22, 2011
बाढ़
बाढ़
तब मेरे शहर मैं आग लगी थी
सड़क सड़क खून के दब्बे
गली गली चीखें
कहीं इस का खून
कहीं उस का खून
फिर मेरे शहर मैं बाढ़ आयी
गली गली सड़क सड़क
बस पानी ही पानी
खून के दब्बे मिट गए
चीखें दब गयीं
उस ने कहा
आगे मत जा पानी है
यह बोला
पीछे हट पानी है
जाने बाढ़ का क्या धर्म था
मैं अपने आप से पूछता रहा
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि मेरे शहर से बाढ़ जाये ही नहीं!
Monday, December 19, 2011
सजाए मौत
सजाए मौत
मील के पत्थर से टेक लगाई
मंजिल के निशाँ
मेरी पीठ पर खिंच गए!
अनगिनत खुल गए रस्ते
ज़मीन गोल है तो
मिलते ही होंगे कहीं ना कहीं !
सुना है अब ज़मीन गोल कहने पर नहीं
यह कहने पर सजाए मौत होती है
कि सभी रस्ते मिलते हैं कही ना कहीं!
शायद थक गया हूँ
हवा से बहस कर के
और थक जाने पर
घर की याद स्वाभाविक है!
इसीलिए कहता हूँ
ज़मीन गोल है और
मैं घर ढूँढ लूँगा
क्यूंकि सब रस्ते
मिलते हैं कहीं ना कहीं!
ठीक है एक सजा और सही
तुम मारते हो तो जी उठता हूँ मैं
मैं तनहा हूँ अकेला नहीं
इसीलिए मैं मर नहीं सकता
और तुम क़त्ले आम कर नहीं सकते!
~Pranesh Nagri 20/12/2011
एक ख़त
इस ख़त पर मैं तुम्हारा नाम लिखूं तो क्यूं कर
तुम तक पहुँचते पहुँचते
जाने किन किन हाथों से गुजरेगा यह
और जाने कौन - कौन
तुम से क्या - क्या सवाल करेगा
तुम बात टाल कर कह दोगी
अब का नहीं बहुत पहले का है यह
एक चलते फिरते कवि की कल्पना है
यूं ही पड़ा है कोई ख़ास बात नहीं
और फिर कितने दिन
पड़ा रहेगा तुम्हारी किताबों के बीच
शाख से टूटे बेजान पत्ते जैसा
या फिर उन कपड़ों की तरह
जिन को खरीद तो लेते हैं
पर पहनते नहीं कभी !
मैं समझ चुका हूँगा
कि अब मैं- मैं हूँ ही नहीं
फिर भी इन्तिज़ार होगा मुझे
उम्र की रवानी को भूल कर
उस ख़त के जवाब का !
और फिर एक दिन
वह मेरा ख़त वापस मिलेगा मुझे
एक पान के बीढ़े से लिपटा हुआ
क्यूंकि वह बिक चुका होगा
रद्दी के भाव तुमसे जाने कब!
इसीलिये सोंचता हूँ
इस ख़त पर मैं तुम्हारा नाम लिखूं तो क्यूं कर!
~pranesh nagri 19/12/11
Saturday, December 17, 2011
साये
साये
साये का पीछा न करना
रौशनी के मोहताज होते हैं साये!
भरी दोपहरी मैं बौने हो जाते हैं
हर शामो- सुबह
लेट जाते हैं लम्बे हो कर
और मिटटी मैं मिला देते हैं साये!
साये साथ नहीं चलते कभी
या तो पीछे रह जाते हैं, या फिर
नई मंज़िलूँ की और दोड़ते हैं साये!
साये की कोई शक्ल नहीं होती
पत्थर से लिपटे तो पत्थर हैं साये
ज़मीन पर रेंगें तो मिटटी हैं
हर दरो दीवार पर लहराते हैं
और रात होते ही गुम हो जाते हैं साये !
साये का पीछा ना करना
अपने ना पराये होते हैं साये!
Thursday, December 15, 2011
शब्द कुछ नहीं बोलते
शब्द कुछ नहीं बोलते
शब्द कुछ नहीं बोलते
बस पड़े रहते हैं
बर्फ की सिल की तरह
हाँ तुम ने कुछ कहा होगा
क्यूंकि शब्द तुम्हारी आंखूं की तरह हैं
जितना देखो उतना ही
पलकूं की सरहदें भीग जाती हैं!
खामोशी एक शोर है
चेहरूँ के जंगल के बीच
मर्यादा को पहचानने का शोर
तुम्हारी सांसूं का शोर सुना होगा
खिड़की पर कौवा बोल रहा है
कोई ख़ामोशी पुकार उठेगी शायद!
चाँद को चुरा ही लूँगा मैं
अमावस की रात डल जाये तो
जुगनुओं के रेले का क्या
जब चाहो गठरी बांद ले चलूँ
शब्द बर्फ की सिल की तरह हैं
शब्द कुछ बोलते नहीं!
Monday, December 12, 2011
मैं ख़ामोशी सुनाता हूँ!
मैं ख़ामोशी सुनाता हूँ!
मैं सागर का घन -गर्जन हूँ
मैं ख़ामोशी सुनाता हूँ!
एक लम्हे की उड़ान मेरी
सिकुड़ी हुई सर्द रातों मैं
सांसूं की सरगोशी हूँ
और मखमली बिस्तर की
सलवटों मैं पनाह पाता हूँ !
मैं मिथ्या और ब्रम के बीच
मोगरे का महकता फूल हूँ
काया के हवन कुण्ड की
लपटों की लीला के बीच
रटा - रटाया मंत्र हूँ
मैं एक अधूरी मुस्कान हूँ!
रस और गंध की लालिमा
पलकूं को भोजिल कर
सांसूं को जब भटकाती है
राग और वैराग्य की
चोखट पर खड़ा मैं
पुनर्वास के गीत गाता हूँ!
पलकूं की भीगी सरहद पर
यादों का मौन स्पंदन हूँ
सूखी जंगल की लकड़ी को
लहरूं के गीत सुनाता हूँ
मैं सागर का घन -गर्जन हूँ
मैं खामोशी सुनाता हूँ!
Friday, December 2, 2011
सफ़र एक बूंद का
चलो चलते हैं वहाँ
स्वप्न भीग नहीं जाते जहां ,
मंज़िलूँ की दूरी क़दमों के निशान से
नापी नहीं जाती जहां !
जहां धरती और आकाश
अलग अलग दिखते नहीं
और हर मौड़ पर धड़कते दिल
सांसूं से आलिन्गंबध हैं जहां!
मन्दिरूं की मूर्तियूं से निकल कर
आनंद ह्रदय की गरमाहट मैं
आनंद ह्रदय की गरमाहट मैं
बस चुका है जहां
मृत्यु का भय नहीं है जहां!
जहां वादे निबाहने के लिए
कसमें नहीं खानी पड़ती
प्रेम की व्याख्या नहीं करनी पड़ती
रिश्ते दोहराने नहीं पड़ते जहां!
चलो उस जगह सुख के कुछ पल
दागों मैं नहीं बांदने पड़ते जहां !
जहां मौसमूं के बदलने से
फूल मुरझा नहीं जाते
पेड कविता करते हैं
और हरियाली गुनगुनाती है जहां !
जहां सब कुछ शरू होता है
और हर एक का अन्त निश्चित है जहां
चलो वहाँ, सत्य को निर्भयता का
प्रतीक माना जाता है जहां
अनर्थ का अर्थ
मन की मर्यादा नहीं है जहां !
जहां काया की लीला
निर्वान का स्वरुप नहीं
अग्नि के साक्षी पल
बहस का मुद्दा नहीं हैं जहां
जहां वासना और अहंकार
शिशु से उस का कौर नहीं छीनती
चलो हम भी चले वहाँ !
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