तुम्हारी नज़रें भेदती हैं
मेरे वजूद के आर पार चली जाती हैं
वहाँ उस कोने तक
जहां मैं पिगल कर पूरे कमरे में फैल जाता हूँ
और दीवार पर सीलन की तरह रेंगता हुआ
घडी की छोटी बड़ी सूईयों से लिपट जाता हूँ
मुझे अब वक़्त पहचानता है !
देखो आस पास की
सभी आवाजें भी पहचानती है मुझे
तुम से बातें करते करते
अमलतास के पेढ़ सा हो गया हूँ
फैला हुआ हरियाला- पीला
मेरी जडें देखो दूर तक निकल चुकी हैं
अब ना कहना मुझ से पूछे बिना
कहाँ निकल गए तुम?
देखना बस यूं ही चलते चलते
हम मिल ही जायेंगे कहीं ना कही
यूं तुम शोर कब तक सह पाओगे
फर्क बस इतना सा है
मेरे क़दमों के निशाँ पत्थर हो गए होंगे
मुझ तक पहुँचने की खातिर
ज़ख्म सहने होंगे क्या सह पाओगे?
~प्राणेश नागरी -२३.०८.२०१२