Tuesday, May 3, 2011

कालाय तस्मै नमः !

चांदी की तश्तरी मैं पानी भर उतारा उसे और क्या करता चाँद था वह मेरा ! हिश मेरा क्यूं कर ? चाँद आसमान प़र रहता है और सब का होता है! प़र वह सब का कैसे हो सकता है ! तश्तरी तो मेरी थी , पानी भी मेरा था !आसमान तारे ,सारे के सारे ,रात , चमचमाती चांदनी सब कुछ उसी का प़र सियाह अँधेरा तो मेरा था ! फिर चाँद सब का कैसे हो गया? मेरी माँ ने कहा था पगले चाँद पानी और तश्तरी में उतरता है कभी ? यह तो परछाई है , जिद छोड़ बहुत हुआ बचपना !में भी जानता था परछाई है प़र बचपना अब भी ना करता तो कब करता! जब बचपन था तब में बड़ा हो गया अचानक ! सोंचा माँ है मेरी इस के पास बचपना तो कभी भी कर ही सकता हूँ!रात भर पानी प़र चाँद को तैरते देखा , रात भर अपनी तकदीर प़र नाज़ करता रहा ! रात ढल गयी सुबह के उजाले ने चाँद मेरा छीन लिया , तश्तरी में पानी- पानी रह गया , क्या पता चाँद कौन से आसमान का हो गया!

मैंने हाथ देखे अपने , लहू से सने ! माथे प़र सलवटों का अम्भार था हाथों के बीच चेहरे की लकीरों को छिपाता बिस्तर प़र करवट प़र करवट लेता रहा ! दिन चढ़ आया था सूरज की किरणें चकाचौंद आसमान प़र फैली थीं ! क्या सच यहीं है , काटता हुआ , चीखता हुआ सच ! दिन जितना चडता है परछाई उतनी ही लम्भी हो जाती है ! आप के पीछे पीछे चलती है और दोपहर के ढलते ही आप के आगे फैल जाती है !फिर एक रात आती है और कभी कभी अमावस की रात आती है ! और अमावास की रात चाँद आसमान प़र नहीं खिलता , उतार आता है और ठिठक कर हथेलियूं के बीच रुक जाता है !

में भी ना - क्या कहानी ले बैठा ! आकाश की निस्तब्द्ता बांस जैसी लम्बी भुजाएं कभी छू पाती हैं क्या !दहकते अंगारों प़र क्या पानी की बूँदें नाच सकती हैं कभी !में ऐसा तो ना था , ना जाने कब मेरे जन्म लग्न ने अपना मिज़ाज बदला ! कालाय तस्मै नमः !

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