Wednesday, January 25, 2012
पच्चीस जनवरी
पच्चीस जनवरी
कल मैं जा रहा हूँ झंडा फहराने
मैं कल राष्ट्र गान भी गाऊंगा
भाषण भी दूंगा
फूलों की माला भी पहनूंगा
बापू, नेता जी, सब का
गुण गान करूंगा
मिठाई और जल पान करूंगा !
फिर रस्ते में जो भूखा नंगा मिले
उसे कोसता जाऊंगा
घर पहुँचते पहुँचते
अपने आप से कहूँगा
इस देश का कुछ नहीं हो सकता
सब कुछ बदलना पड़ेगा!
घर की चौखट पर
मेरे अपने मुझ से कहेंगे
इस साल कुछ नया कर लेते
कुछ नहीं तो कम से कम
अपने आप को बदल देते !
हर साल की तरह
मैं कमरे के अँधेरे मैं डूब जाऊंगा
घुट्नूं मैं चेहरा छुपा कर
साल गुजरने की प्रतीक्षा करूंगा
और फिर अगले साल
झंडा फ़हराने जाऊंगा !
~प्राणेश नागरी २४.०१.२०१२
Tuesday, January 24, 2012
उद्घोष
उद्घोष
देखो दीवार मैं चुन देना मुझे
किसी कब्र मैं जिंदा गाढ्ना
एक बार फिर सत्य कहा है मैंने
मेरी ज़ात समझौते नहीं कर सकती!
मैं मजहबों का गुलाम नहीं
सदियूं से इस गुफा मैं रहता हूँ
युग बदलते हैं मेरी भूख नहीं बदलती
ना बदलती हैं मेरी आशाएं!
और यह भूख , यह आशाएं
मुझे गुटने टेकने पर और
टिकवाने पर मजबूर करती है!
सदियूं से मैं सूर्य से संवाद कर रहा हूँ
मेरे शरीर का रेशा रेशा जल चुका है
मेरे आसपास एक दहकता शमशान
रुदन के सुर को सादने मैं व्यस्त है
और महाकाल का मौन उपवास
ह़र चीख का गला गौंट रहा है!
पाप और पुण्य मात्र एक शूल है
जो जागरूक अस्तित्व को भेदता है
भीख मैं मिली शांति से अच्छा है
रक्त रंजित हो युद्ध का उद्घोष करें
इस से पहले कि नैतिकता
कायरता बन उपहास करे
आओ उठें और पाशान काल मैं वास करें
जो मुंह का कौर छीनने को आगे बड़े
उस की लीला का अंत करें सर्वनाश करें!
~प्राणेश २४.०१.२०१२
Sunday, January 22, 2012
बस इश्क रहा
बस इश्क रहा
हद और अनहद की सरहद पर
मज़हब का पहरा है ही नहीं
काया की करवट बेमानी
लेना देना कुछ है ही नहीं!
यह इश्क का दरिया है गहरा
नासमज न तू पतवार पकड़
गर डूब गया तो डूबा रह
उस पार किनारा है ही नहीं!
जितना खोया उतना पाया
सब हारा तो मन जीत लिया
रंग साजन का ओढा तन पर
रंगने को अब कुछ है ही नहीं!
इक बार मुझे बस पार लगा
इस पार के बंदन सब झूठे
उस पार मेरा घर है मालिक
इस पार मेरा कुछ है ही नहीं!
मेरी ज़ात गयी मेरा नाम गया
बस इश्क रहा और कुछ ना रहा
तेरा नाम बसा है साँसों मैं
और इस के सिवा कुछ है ही नहीं!
~प्राणेश नागरी २३.०१.२०१२
Monday, January 16, 2012
कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ
एक सांस की दूरी पर रहती हो तुम
और वह पल
जब मेरे हाथ छूना चाहते हैं
अनुभव करना चाहते हैं
तो समय कहता है
उद्भव के प्रगमन मैं
हाथ कहाँ बांस ले चला था तू
सुर की आरोही ले ले
गंध का आलाप छेड़
स्पर्श की सीमायें होती हैं
राग रस की कोई नहीं!
मैं यहीं कहीं होता हूँ
जैसे वायु से लिपटा मंत्र
जैसे हवन कुण्ड मैं लिपटी
अग्नि से समिधा की गंध
जैसे फूलों से लिपटा
रंग का आभास!
मैं तुम्हारे तन को ओढ़ता हूँ
सांसूं की घर्मी और ठिठुरन के
बीच के पल को समर्पित
अपनी कोख की गर्मी में
शब्द बीज का समावेश करता हूँ
प्रसव की पीड़ा भोगता हूँ
और हर्षित हो
कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ!
~प्राणेश १६.०१.२०१२
Friday, January 13, 2012
विस्थापन
Thursday, January 12, 2012
प्रार्थना
प्रार्थना
दुःख देना या सुख देना
जो भी देना बस दे देना!
रात गुज़ारूँ मन की छत पर
दिन पलकन पर रख देना
सुबह को भूला भटका रखना
शाम को मेरा घर देना!
पाऊँ को देना ज़ख्म हज़ारूं
आंखूं को आंसू देना
अमृत देना वाणी मैं और
सीने मैं इक दिल देना!
पथ मैं कांटे ही कांटे हों
चलने की हिम्मत देना
साँसों की सरगम पहचानूं
मुझ को बस यह वर देना!
सत्य कहूं सुनूं और जी लूं
इतना बल कौशल देना
जाने की जब बेला हो तो
मुस्कान भरा चेहरा देना!
दुःख देना या सुख देना
जो भी देना बस दे देना!
~प्राणेश -१२.०१.२०१२
Wednesday, January 11, 2012
इक बार मैं वापस आऊँगा
कितनी लावारिस हैं पलकों की सरहदें
कोई भी छुवन साँसों की भिगो देती है इन्हें!
एक भूली बिसरी सी दोपहर
जब तुम्हारे काँधे से उतरती है
तो बौना कर देती है मुझे
मैं अपने आप मैं सिमट सा जाता हूँ !
और दिन जब भी चढ़ जाता है
तुम्हारे नाम का
जिस्म की बदबू से सनी तन्हाई
मीलों मेरे साथ रेंगती है !
कितना सुनसान है यह शहर
तुंहारा नाम लेता हूँ
तो हर गली हर कौना हर मौड़
बेसहारा सा तकता रहता है मुझे!
कुछ और नहीं है पास
कुछ शब्द हैं जो एक अमानत हैं
आसमानों से बहस नहीं करता मैं
वह ऊंचे सही पर बुलबुले हैं हवा के
हाँ वह शब्द मैं ले कर आऊँगा
इक बार मैं वापस आऊँगा !
~प्राणेश ११.०१.२०१२
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