
एक सांस की दूरी पर रहती हो तुम
और वह पल
जब मेरे हाथ छूना चाहते हैं
अनुभव करना चाहते हैं
तो समय कहता है
उद्भव के प्रगमन मैं
हाथ कहाँ बांस ले चला था तू
सुर की आरोही ले ले
गंध का आलाप छेड़
स्पर्श की सीमायें होती हैं
राग रस की कोई नहीं!
मैं यहीं कहीं होता हूँ
जैसे वायु से लिपटा मंत्र
जैसे हवन कुण्ड मैं लिपटी
अग्नि से समिधा की गंध
जैसे फूलों से लिपटा
रंग का आभास!
मैं तुम्हारे तन को ओढ़ता हूँ
सांसूं की घर्मी और ठिठुरन के
बीच के पल को समर्पित
अपनी कोख की गर्मी में
शब्द बीज का समावेश करता हूँ
प्रसव की पीड़ा भोगता हूँ
और हर्षित हो
कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ!
~प्राणेश १६.०१.२०१२
Wah wah wah....Great kavita indeed. Keep it up Nagriji.
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