Thursday, April 5, 2012


अस्तित्व के मण्डल की परिक्रमा में

शून्य को घूर के देखा है कभी

वक़्त पिगल कर टपकता है

और माथे के बीचों बीच

बड़ा सा सुराख़ कर देता है

जिस के गोलार्द में से

अनगिनत आकार उग आते हैं

और बिखर जाते हैं,इधर उधर

बिलकुल वैसे ही जैसे

बंजर बाँझ ज़मीन पर बिखरे नरमुंड!

मैंने भी बहुत दूर तक शायद

अपने आप का पीछा किया है

मुझे, ना मैं मिला ना धूप मिली

बस घटते बढ़ते अपने साये मिले!

मेरे गीत ना अकेले पड जायेंगे

ना मेरे साथ चले जायेंगे

हाँ जब तक सुध रहेगी

तुम याद बहुत आओगे

और शब्द बन तुम्हारी याद

कागज़ के पन्ने भिगोती रहेगी

फिर एक दिन........

शून्य मुझ में समा जायेगा

अनर्थ से अर्थ का परिचय हो जायेगा!


~प्राणेश नागरी-०५.०४.२०१२

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