अस्तित्व के मण्डल की परिक्रमा में
शून्य को घूर के देखा है कभी
वक़्त पिगल कर टपकता है
और माथे के बीचों बीच
बड़ा सा सुराख़ कर देता है
जिस के गोलार्द में से
अनगिनत आकार उग आते हैं
और बिखर जाते हैं,इधर उधर
बिलकुल वैसे ही जैसे
बंजर बाँझ ज़मीन पर बिखरे नरमुंड!
मैंने भी बहुत दूर तक शायद
अपने आप का पीछा किया है
मुझे, ना मैं मिला ना धूप मिली
बस घटते बढ़ते अपने साये मिले!
मेरे गीत ना अकेले पड जायेंगे
ना मेरे साथ चले जायेंगे
हाँ जब तक सुध रहेगी
तुम याद बहुत आओगे
और शब्द बन तुम्हारी याद
कागज़ के पन्ने भिगोती रहेगी
फिर एक दिन........
शून्य मुझ में समा जायेगा
अनर्थ से अर्थ का परिचय हो जायेगा!
~प्राणेश नागरी-०५.०४.२०१२
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