Tuesday, August 7, 2012

मैं अब चलना नहीं चाहता!

 
 
अँधेरे में डूबे इस कमरे की दीवारें
सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े
जाने कब से खो गए हैं ,
मुझे अक्सर मेरा पता तब चलता है
जब मेरी हडियों के आस पास
मांस की एक एक बोटी
मुझ से अलग हो कर शून्य में
विलीन हो जाती है!
बस अब मैं चलना नहीं चाहता
मैं कमरे के बीचोंबीच खडी
तुम्हारी शक्ल की
पांचवी दीवार से लिपट कर
रौशनी का मातम नहीं करना चाहता !
सुन तू मुझे मेरा पता मत बता
में जानता हूँ
रौशनी के दायरे में वह सब कंकाल
जो मुझे घूर कर देख रहे हैं ,
सब के सब मेरे कातिल हैं
और उन की मांस की बोटियाँ भी
शून्य में विलीन हो चुकी हैं!
फर्क बस इतना है
कि उन की खिड़कियाँ अभी
अन्धकार में डूबी नहीं हैं
इसीलिए वह बंद दरीचों से
ठहाके लगाने का उत्सव मना रहे हैं!
मुझ पर एक एहसान कर
इस कमरे की हर दीवार में आग लगा
मैं अपना रास्ता दूंढ तो लूं
यहाँ से निकल तो पाऊँ
मुझ से अब नहीं होता
रौशनी का मातम
मैं अब चलना नहीं चाहता!
~प्राणेश नागरी -०६.०८.२०१२

2 comments:

  1. न चलने से अगर सफ़र ख़त्म हो जाता तो चाँद धरती बहुत पहले ठहर गये होते. क़ातिल कंकालों के शहर में दम ले ले ही सफ़र जारी रखना होगा. ज़िंदा रहना होगा और चलना होगा... चाहो न चाहो इस के कोई मायने नहीं हैं.
    Peace,
    Desi Girl

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