Thursday, August 23, 2012

अमलतास

 
 
 
 
 
 
तुम्हारी नज़रें भेदती हैं
मेरे वजूद के आर पार चली जाती हैं
वहाँ उस कोने तक
जहां मैं पिगल कर पूरे कमरे में फैल जाता हूँ
और दीवार पर सीलन की तरह रेंगता हुआ
घडी की छोटी बड़ी सूईयों से लिपट जाता हूँ
मुझे अब वक़्त पहचानता है !
देखो आस पास की
सभी आवाजें भी पहचानती है मुझे
तुम से बातें करते करते
अमलतास के पेढ़ सा हो गया हूँ
फैला हुआ हरियाला- पीला
मेरी जडें देखो दूर तक निकल चुकी हैं
अब ना कहना मुझ से पूछे बिना
कहाँ निकल गए तुम?
देखना बस यूं ही चलते चलते
हम मिल ही जायेंगे कहीं ना कही
यूं तुम शोर कब तक सह पाओगे
फर्क बस इतना सा है
मेरे क़दमों के निशाँ पत्थर हो गए होंगे
मुझ तक पहुँचने की खातिर
ज़ख्म सहने होंगे क्या सह पाओगे?
~प्राणेश नागरी -२३.०८.२०१२

6 comments:

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    1. How do you do Pooja. After a very long time. Thanx for visiting my blog. Very kind of you.

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  2. अब ना कहना मुझ से पूछे बिना
    कहाँ निकल गए तुम?
    ........... सर बेहतरीन

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  3. दीवार पर सीलन की तरह रेंगता हुआ
    घडी की छोटी बड़ी सूईयों से लिपट जाता हूँ
    मुझे अब वक़्त पहचानता है !....

    Beautiful thought...बहुत सुंदर रचना... अपनी तरह की अनूठी कल्पना...

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    1. Bahut bahut aabhaar, aap ne samay nikal kar padha.

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