Tuesday, October 2, 2012

आखिर क्यूं

 
 
 वह सब जो मुझ से                                                                                
जाने अनजाने मिल जाते हैं
अपने हो जाते हैं
रिश्ते बनाते हैं
साथ चलते हैं
निबाहने की कसमें खाते हैं
वह सब जिन को ज़रुरत होती है
जो अकेले डर जाते हैं,
वह सब कहते हैं.......
मैं बहुत अच्छा हूँ
जूठ नहीं बोलता, सत्यवादी हूँ
सब को खुश रखता हूँ
दोखा नहीं देता,बेईमान नहीं हूँ
वह कहते हैं.......
मैं उन से प्यार करता हूँ
उन की दुत्कार सुनता हूँ
खुशियाँ बांटता हूँ
रूठों को मनाता हूँ
वह सब कहते हैं.....
कितना अच्छा हूँ मैं
और वह सब
जब छोड़ के चले जाते हैं
तो मैं सोंचता हूँ
मैं इतना अच्छा क्यूं हूँ
और इतना अच्छा होना
ज़रूरी क्यूं है,आखिर क्यूं ?

4 comments:

  1. ...और इतना अच्छा होना
    ज़रूरी क्यूं है,आखिर क्यूं ?

    कोई ज़रूरी नहीं है, बस आदत से मजबूर हैं. अच्छे होने के अलावा और कुछ आता नहीं है. दुष्टता सीखने में समय लगेगा और कष्ट व ग्लानि होगी इसी लिए अच्छे बने रहने में ही सुकून है... फिर ज़िंदा रहने के लिए खुशफ़हमियाँ भी तो ज़रूरी हैं.

    Peace,
    Desi Girl

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    1. aap ki baat bilkul sahi hai. Hum aksar apnee aadaton se majboor ho jate hain.

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  2. सच है...
    अकसर अच्छा होने की कीमत चुकानी पड़ती है...
    बेहतरीन रचना..

    अनु

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    1. Haan koi bhi chhez aaj ki duniya main yuoon hi to nahi milti.

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