
कविता
अब मैं तुम को
जीना चाहता हूँ कविता
अब तुम आँखों में चुबती नहीं
क्यूंकि अब मेरे आंसूं
रुसवाई से नहीं डरते
धूप की लकीरें जब
कमरे के किवाड़ों से
छन कर आतीं हैं
फर्श पर बेतरतीब फैला
काफ्का और हक्सले
का वैचारिक जंगल
सार्तरे और कामू
का अस्तित्ववाद
सब कुछ उम्र की
दालान पर फिसलता
नज़र आता है
रह जाता है तो बस
सिकुड़ता सिमटता समय
हाथ की उंगलियाँ
चांदी जैसी सफ़ेद दाडी
और तुम कविता जो
लोरी सुनाती कभी
ग़ज़ल और गीत गाती
गुनगुनाती कभी
फाग और चैती के
रसीले अंग निखारती कभी
दादरा और ठुमरी का
राग बिठाती कभी
इठलाती बलखाती
मेरे सिरहाने बैठ
मीठी नींद सुलाती हो
अब मैं रुसवाई से नहीं डरता
अब मैं तुम को
जीना चाहता हूँ कविता
अब तुम बहुत याद आती हो!
~प्राणेश नागरी -१५.०२.२०१२.
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