
विस्थापन
जब मैं इस घर से चला था
तुम्हारी कुछ उखड़ी साँसें
अपने कंधे पर
लाद के ले चला था मैं
अपने साथ
और वह सांसें
धूप मैं तप कर
उबलते टेंटों की घर्मी मैं
दफ़न हो गयी थीं
फिर आज इस कमरे की
चार दीवारी मैं
मकड़ी के लटकते जाल के बीच
तुम्हारी धड़कन क्यूं
सुनाई दे रही है मुझे
क्यूं इस मिटटी के फर्श पर
तुम्हारे क़दमों का एहसास
हो रहा है मुझे
तुम्हारी आवाज़
चेहरों के वीरान जंगल मैं
खो गयी थी कहीं
फिर कौन है जो
कोने मैं बैठा
गले को खंगाल रहा है
उफ़ यह यादों के
अनगिनत शूल क्यूं
छिल रहे हैं मेरे अस्तित्व को
और यह किस के हाथ की
शीतल छुवन
सहला रही है मेरी पीठ को
कौन है इस वीरान कमरे में
जहां से में तुम्हारी
उखड़ी उखड़ी सांसें
लाध के चला था
अपने कंधे पर
एक दिन !
~प्राणेश नागरी -२३.०२.२०१२
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