
समय
वह तुम्हारे
इलेक्ट्रोनिक प्रेम पत्र
मेरी मेल बॉक्स मैं
बड़ी तादाद मैं पड़े हैं
तुम कहती हो
तुम्हें कुछ याद ही नहीं
कब भेजे थे तुम ने
यहीं तो है पागलपन
प्रेम का पागलपन
हर दिन क्लिक करती थी
याद रखती थी मेल भेजना है
कितना उल्टा सीधा था
सब कुछ उन दिनों
याद है ना तुम्हें
अपनी छत से मीलों दूर
पूर्णिमा का चाँद
समझाती थी तुम मुझे
और मैं तुम्हारी कुर्ती और
दुपट्टे की तारीफ मैं
घंटों गुजारता था
पर धन्य है यह
समय का रेंगता कीड़ा
दीमक की तरह
सब कुछ चाट जाता है
देखो ना, अब कितना सरल
कितना सपाट है
तुम्हारा मेरा रिश्ता
तुम्हे, कुछ भी याद नहीं रहता
और मैं कुछ भूल ही नहीं पाता!
~प्राणेश नागरी -१७.०२.२०१२
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