Friday, March 30, 2012

मुझे याद है


मुझे याद है आज भी

जिस्म के ऊपर रेंगती हुई

तुम्हारी उन्गलियूं की छुवन,

नाखूनों के बेतरतीब निशान,

होंठों की आग से रोशन

मेरा हर एक रेशा रेशा,

जैसे खोद खोद के दूंढ रही हो

अपने होने के बचे खुचे सुराग

बिलकुल वैसे ही

जैसे कोई पुरातत्व वैज्ञानिक

दूंढ रहा हो गए वक़्त में

तहज़ीब के अंतिम निशान!

और इस कमरे में

यह चींटियों का रेला

अनगिनत लटकती मकड़ियां

चूहों की फुदकती फोज

और मरियल सा आइना

सब सोंच रहे होंगे

कहीं तो बची होगी हमारी ज़ात

कहीं तो होंगे कुछ लोग

जिन्हें तहज़ीब के निशान

ढूँढने ना पड़ते हों

खुद को इंसान साबित करने के लिए

और जो आज भी इंसान कहलाते हों!

~प्राणेश नागरी ३०.०३.२०१२

Thursday, March 22, 2012

चुड़ैल


मीठी थी बहुत
बात करती थी तो
शहद सा गोल देती थी ,
सरल भी थी
शब्दों में गुल मिल जाती थी
कविता सी थी ,
जहां तहां गूमती थी
यादों में सपना बन
आती थी,
आडम्बर सम्हालती थी
सब सह लेती थी
माँ जैसी लगती थी!
दूर सदूर देखती थी
सूर्य से संवाद
कर रही हो जैसे !
मैंने पूछा कौन हो तुम
चुड़ैल नाम है मेरा
पैदा होते ही
इसी नाम से
बुलाया था सब ने
वैसे कागज़ों में सुना है
इस घर की बेटी हूँ!
~प्राणेश नागरी

Wednesday, March 21, 2012

नई दिल्ली के एअरपोर्ट पर



खिड़कियाँ खामोश रहती हैं
क्यूंकि खिडकियों पर कोई
दस्तक नहीं देता
खिड़कियाँ सूरज के लिए
रुकी नहीं रहतीं
क्यूंकि सूरज अक्सर
आ कर ठहर जाता है
इन बंद किवाड़ों पर,
और मातम मनाते
वक़्त के ज़ख्मों को सहते
सुराखों के बीच
छन छन बरसता है!
पर कभी कभी यह खिड़की
तुम्हारी छत पर खुलती है
वह छत जहां से तुम
चाँद को देखा करती थी !
अब भी ,
देखती रहती हो तुम
पर अब शायद
चाँद से आगे की दुनिया
क्यूंकि आगे बड़ना
तुम्हारा भी तो हक है
पता नहीं तुम्हारी
छत का वह कोना
जहां से तुम
चाँद को देखा करती थी,
या फिर खिड़की के
ज़ख़्मी किवाड़,
कुछ दिन से कुछ ना कुछ
शोर बहुत करता है
बहुत पीछे ले जाता है मुझे
और तुम आगे बढ़ती हो
चाँद के उस पार की दुनिया
ताकती रहती हो!
खिडकियों पर कोई
दस्तक नहीं देता
खिड़कियाँ बातें नहीं करतीं !
~प्राणेश नागरी-२७.०२.२०१२

Wednesday, March 14, 2012

वह कहती है


वह कहती है

तुम को छूना है

मैं कहता हूँ

बस एक लम्हा हूँ मैं

बाकी सब तो मौसम है

भला मौसमों को भी

छू पाया है कोई?

वह अब

कुछ भी नहीं कहती,

फिर भी उस की

साँसों की छुअन

क्यूं बहलाती है मुझे

क्यूं वह गीतों में

मिलने आती है

क्यूं मुझे

सारी रात जगाती है?

वह कहती है

मुझे तुम को छूना है

देखना है तुम में

कहाँ रहती हूँ मैं

मैं कहता हूँ

अपने आप को टटोलो

मैं अब कहाँ रहता हूँ

अपने साथ!

~प्राणेश नागरी -१२.०३.२०१२

Tuesday, March 13, 2012

सवाल






हर एक के

अपने अपने सवाल

पापा, स्पाईडर मैन

इतना बहादुर कैसे था?

हम चाँद पर क्यूं गए

वहाँ से कोई भी

तो नहीं आया था?

ज़मीन गोल ही

क्यूं है - चपटी हो तो

क्या होगा ?

कितने सवाल

और मैं हर एक का

जवाब दे पाया था!

पर जब उस ने पूछा

पापा, आप ईमानदार थे

तो वह सब

आप के दुश्मन क्यूं थे?

मेरी आवाज़ रुक गयी

मेरे पास पहली बार

कोई जवाब नहीं था!

हर एक के

अपने अपने सवाल

कैसे कैसे सवाल!

~प्राणेश नागरी -२८ .०२ .२०१२

Sunday, March 11, 2012

तुम्हारे बिन


तुम्हारे बिन

लम्बे मीलों लम्बे दिन ,

और तुम्हारे साथ

पलक झपकते दिन !

इतने सारे दिन

और उस के बाद

बस एक दिन

और एक दिन के भी

कुछ पल छिन!

तुम्हारे बिन

मीलों लम्बे दिन!

तुम्हारे बिन

यादों मैं उलझे दिन

घरम कोफी की

चुस्कियों वाले दिन

बेवजह सिसकियों वाले दिन

कुछ और कहने वाले , और

कुछ और सोंचने वाले दिन

वह सब साथ के दिन

जाने क्यूं हो जाते हैं

मीलों लम्बे दिन

तुम्हारे बिन !

मुस्कुराती दुपेहली दोपहरी में

हमारे साथ साथ चलते दिन

कनखियूं से तुम्हारे होंठों को

छूते सरगोशियाँ करते दिन

उडती सब्ज़ हवाओं में

दुपट्टे से खेलते दिन

कभी अजीब से

कभी अजनबी से

कभी अपने से

जाने पहचाने दिन

तुम्हारे बिन

मीलों लम्बे यह दिन !

~प्राणेश नागरी -१०.०३.२०१२

पाब्लो नेरुदा




वह कहती है

तुम पाब्लो नेरुदा हो

विस्थापन,

कोम्युनिस्ट विचारधारा

शहर- शहर बन्जारे की भटकन

राजनीति ,और क्या क्या

मैं जानता हूँ, वह

जीवनी की बात करती है

कविता की नहीं!

~प्राणेश नागरी -०२.०३.२०१२

कहानी


एक कहानी छोटी सी



रानी हमारे घर काम करती थी! समय के साथ साथ घर का हिस्सा हो गयी थी! रानी का पति हर शाम दारू पी कर आता और रानी को पीटता ! दूसरे दिन उस का चेहरा उस की कहानी बता देता ! एक ऐसे दिन मैं गुस्से में आया , रानी के पति को पकड़ा और दे मारे दो चार!

दूसरे दिन देखा रानी नहीं आयी थी! दरवाज़े के सामने हमारा बहुत पहले रानी को दिया टीवी रखा था ! एक पन्ने पर लिखा था! क्यूं मारा मेरे पति को! क्या बिगाड़ा था तुम्हारा! उस के बाद रानी हमारे घर का हिस्सा नहीं रही!




चतुर कौवा

प्रफुल्ला नागरी

कहते हैं एक कौआ था और प्यासा भी था! एक घड़ा था और पानी से भरा था! कौवे ने घड़े को देखा और सोंचा यह घड़ा भरा हुआ क्यूं! यह तो आधा भरा होना चाहिए! अब मेरी कहानी का क्या होगा?कौवे ने सोंचा कुछ अलग करता हूँ! कंकर भर देता हूँ घड़े में और पानी को बहने देता हूँ! कौवा कंकर भरता गया पानी बहता गया! कुछ इधर फैला कुछ उधर! धीरे धीरे घड़ा कंकरों से भर गया और पानी बहुत नीचे चला गया! कौवा चोंच डालने लगा पर कंकर उस की चोंच जाने ना दें और पानी, वह तो बहुत नीचे था! इस कहानी का कौवा प्यासा ही रहा पर हाँ कुछ कर तो दिया उसने!

Monday, March 5, 2012

एक विस्मृत पल


एक विस्मृत पल



जिस लम्हा

धूप आकाश मैं तैरती है

जिस लम्हा

शाम अँधेरे मैं खो जाती है

मैंने कितनी बार

उस लम्हे को छू के देखा है

जैसे कोई भूखा

उस शीशे के पट को

छू के देखता है,जिस के पीछे

खाने का सामान पड़ा हो !

तुम से कहूं कि ना कहूं

अब कहूं कि कब कहूं

कितनी बार मैं यह जंग

अपने आप से हार चुका हूँ!

न मैं मजबूर हूँ और

ना तुम ज़रुरत हो मेरी

तुम बस ऐसी हो जैसे

सांस लेना , जैसे पानी पीना

जैसे पूजा करना , जैसे थक हार कर

बेवजह आसमान को ताकना

सच कहता हूँ सुनो, तुम बस हो

और मैं नहीं जानता क्यूं !

~प्राणेश नागरी -०२.०३.२०१२

Friday, March 2, 2012

कुछ ज़ेन कवितायें


कुछ ज़ेन कवितायें

अब थक गया हूँ बहुत

अब घर जाना चाहता हूँ

कोई मेरा पता बता दे मुझे !


परत दर परत बादल हट गए

हम चमकते चाँद को

चमचमाती रोटी समझे!



किसी की सांसें छू गयी

मैं इंसान से

फ़रिश्ता हो गया !



आवाजों का जंगल

क्या किया यह तुम ने

मीलों पड़ी खामोशी !



जी लूँगा हर इक मौसम

ओढ़ लूँगा हर सावन

तुम मत बदलना कभी !



मेरी देह के दरीचों पर

पांच पीरों ने दस्तक दी

मेरा वजूद दरगाह हो गया !

Thursday, March 1, 2012

विस्थापन


विस्थापन

चूंकि मृत्यु के लिए

जीवन अनिवार्य है

तुम्हारी मौत का समाचार

मुझे दुःख नहीं देता

हर्षित होता हूँ मैं

यह जान कर, कि

इतने वर्ष तुम भी

जीवित रहे मेरी तरह!

जीवित रहे, या फिर

तुम्हारी काया भी

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा में शून्य में

विकल्प ढूँढती रही,

विकल्प बस एक ही

कि मृत्यु के लिए कैसे

जीवन सुरक्षित करें!

तुम सोंचते रहे कि

कश्यप ऋषि आयेंगे

और कोई नया

महामंत्र जाप लेंगे

शायद इस रक्त रंजित

धरती पर फिर एक बार

सतीसर उमढ आये

फिर कोई दानव जन्म ले

और मुक्त करे हमारी चेतना को

क्यूंकि सत्ता मैं अवतरित देवता

इसे कब का भूल चुके हैं !

तुम्हारी मृत्यु एक मेला है

जहां सब देह्वासी

इकट्ठे हो जायेंगे

वह जो मेरे अपने हैं

और जिन्हें मैं कब का

मृत समझ चुका हूँ

पर जो वास्तव में

अपने अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा में, जीने के

विकल्प ढूँढ रहे हैं

बस एक दिन मुझे

हर्षित करने के लिए!

~प्राणेश नागरी-२९.०२.१२