Monday, March 5, 2012

एक विस्मृत पल


एक विस्मृत पल



जिस लम्हा

धूप आकाश मैं तैरती है

जिस लम्हा

शाम अँधेरे मैं खो जाती है

मैंने कितनी बार

उस लम्हे को छू के देखा है

जैसे कोई भूखा

उस शीशे के पट को

छू के देखता है,जिस के पीछे

खाने का सामान पड़ा हो !

तुम से कहूं कि ना कहूं

अब कहूं कि कब कहूं

कितनी बार मैं यह जंग

अपने आप से हार चुका हूँ!

न मैं मजबूर हूँ और

ना तुम ज़रुरत हो मेरी

तुम बस ऐसी हो जैसे

सांस लेना , जैसे पानी पीना

जैसे पूजा करना , जैसे थक हार कर

बेवजह आसमान को ताकना

सच कहता हूँ सुनो, तुम बस हो

और मैं नहीं जानता क्यूं !

~प्राणेश नागरी -०२.०३.२०१२

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