Friday, March 30, 2012

मुझे याद है


मुझे याद है आज भी

जिस्म के ऊपर रेंगती हुई

तुम्हारी उन्गलियूं की छुवन,

नाखूनों के बेतरतीब निशान,

होंठों की आग से रोशन

मेरा हर एक रेशा रेशा,

जैसे खोद खोद के दूंढ रही हो

अपने होने के बचे खुचे सुराग

बिलकुल वैसे ही

जैसे कोई पुरातत्व वैज्ञानिक

दूंढ रहा हो गए वक़्त में

तहज़ीब के अंतिम निशान!

और इस कमरे में

यह चींटियों का रेला

अनगिनत लटकती मकड़ियां

चूहों की फुदकती फोज

और मरियल सा आइना

सब सोंच रहे होंगे

कहीं तो बची होगी हमारी ज़ात

कहीं तो होंगे कुछ लोग

जिन्हें तहज़ीब के निशान

ढूँढने ना पड़ते हों

खुद को इंसान साबित करने के लिए

और जो आज भी इंसान कहलाते हों!

~प्राणेश नागरी ३०.०३.२०१२

2 comments:

  1. कहाँ से शुरू की और कहाँ पहुँचा दी कविता.
    शब्दों का माया जाल बुनते हैं कवि.

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    1. Aur kya kare batayeye. Kahe to mushkil aur na kahe to........

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